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Thursday, May 29, 2008

कारवां आगे बढता रहे......

सभी रंगकर्मी साथियों का अभिवादन....
बहुत दिनों से कुछ लिख नही पाया लेकिन लगातार पढता ज़रुर रहा। कुछ साथियों ने फोन पर कहा कि आजकल रंगकर्मी पर रंगकर्मी ही नही दिख रहे हैं। खैर ये साथियों का प्यार है जो हमेशा प्रेरणा बनता है। दरअसल लम्बे समय बाद घर वालों के लिये कुछ वक्त निकालने की कोशिश कर रहा था। इस बीच देखकर प्रसन्नता हुई कि आशा जी, कीर्ति, प्रमोद जी और स्मृति समेत कई साथी लगातार लिखते रहे जिसके लिये मैं उनका आभार व्यक्त करना चाहता हूँ साथ ही इतने दिनों तक ना लिख पाने के लिये क्षमा भी चाहता हूँ। और आभार उन लोगों का भी जिन्होने फोन पर हमारे हाल-चाल लिये। खैर आप लोगों की मेहनत का ही नतीजा है कि रंगकर्मी की सदस्यता के लिये लगातार ढेरों मेल आ रही है। लोग रंगकर्मी के पसन्द कर रहे है। उम्मीद है ये कारवां यूँ ही आगे बढता रहेगा।

शुभकामनाओं सहित.......

परवेज़ सागर

Sunday, May 25, 2008

बैठे हैं इंतिज़ार में ...

'तनहा' उदास रात के लमहों की खैर हो इक शम्म जल उठी है अंधेरों की खैर हो बैठे हैं इंतज़ार में लौटेंगे वो कभी बरसों की बात छोड़िये सदियों की खैर हो होठों पे एक बात है होती नहीं बयाँ सोचा है आज कह भी दें लफ़्ज़ों की खैर हो उनको छुआ कि जिस्म को बिजली ने छू लिया देखा है उनको बारहा आंखों कि खैर हो मौजों से आज हो गयी तूफाँ कि दोस्ती दरिया है बेलगाम किनारों की खैर हो -- प्रमोद कुमार कुश 'तनहा'

Friday, May 23, 2008

टी.वी पत्रकारिता का सच

पत्रकारिता कभी एक क्रान्तिकारी गली हुआ करती थी लेकिन आज ये एक बदनाम गली हो गई है ख़ास तौर पर लड़कियों के लिए क्योंकि लड़के तो अकसर बदनाम ही हुआ करते हैं। पहले बड़े से बड़ा मंत्री पत्रकार से डरता था कि कहीं उसकी कलई न खुल जाय लेकिन आज पत्रकारिता और ख़ास तौर पर टेलीविज़न पत्रकारिता ख़ुद ही कटघरे में खड़ी हो गयी है।मैं इलाहाबाद के ब्राह्मण परिवार से हूँ जहाँ लड़कियों का टेलीविज़न पत्रकारिता में आना बहुत अच्छा नहीं माना जाता लेकिन फिर भी अगर बच्चे ज़िद पर अड़े हों तो मॉ-बाप को उनकी ज़िद के आगे झुकना ही पड़ता है।मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।परीक्षा की तैयारी की और भोपाल से जर्नलिज़्म की पढाई।आस-पड़ोस वालों के लिए टेलीविज़न पत्रकारिता का मतलब केवल माइक पकड़कर टीवी पर आना ही था।उन्हें लगने लगा कि लड़की अब सीधे आज-तक या स्टार न्यूज़ में ही दिखेगी।लेकिन उन्हें ये नहीं पता कि इसमें पर्दे के पीछे भी बहुत सारे काम होते हैं जो उतने ही महत्तवपूर्ण होते हैं जितने कि पर्दे के सामने के।लेकिन सच्चाई भी यही है कि आज एक टीवी में दाख़िल होने के लिए एक लड़की को लगभग उतना ही संघर्ष करना पड़ता है जितना बिना किसी गॉडफादर के एक लड़की को बॉलीवुड में एंट्री के लिए करना पड़ता है।ये फील्ड भी आज उतना ही ग्लैमराईज़ हो चुका है जितना बॉलीवुड।हर कदम पर यहॉ भूखे गिद्घ शिकार की ताक में बैठे रहते हैं। कब कोई शिकार आए और वो उसे एक सांस में निगल जांय।मेरे गुरूजी ने मुझे समझाते हुए एक बार कहा था- ये जगह काजल की कोठरी है जिसमें से तुम्हे बेदाग निकलना है।अगर आपकी सुकुमारी का मन सौम्य है तो ध्यान दें क्योंकि पत्रकारिता सौम्यता की दुश्मन है।अगर उसके कानों ने कभी अपशब्द नहीं सुने तो चैनल में हर रोज़ उसे दूसरों के मुँह से गालियॉ सुनने की आदत हो जाएगी क्योंकी ये टेलेविज़न का एक तहज़ीबी हिस्सा है।टेलीविज़न पत्रकारिता का सच वाकेयी कड़वा है लेकिन अगर आप इस काजल की कोठरी से साफ-सुथरे बाहर आ जाय तो ख़ुद को ख़ुशनसीब समझिएगा.....सच तो कड़वा ही होता है लेकिन फिर भी अगर आपमें माद्दा हो और हौसले बुलन्द हों तो कूद पड़िये इस महायुद्ध में।

Thursday, May 22, 2008

एहसास

उम्मीदों को दम घुटते देखा है मैंनें

सपनों को टूटते देखा है मैंनें

आशाओं की पलकों पर

ओस सी मखमली

पल में ढुलक पड़ती

कपोलों के धरातल पर अपना अधिकार समझ

ये जान कि व्यर्थ हो जाएगी ये बूंद

अपने में समेटे एहसास को

ये बूंद हो सकती है निर्जीव

लेकिन एहसास नहीं

वो तो फिर जागेंगे

छूने को नया आकाश

फिर उमड़ेंगे

शायद फिर बरसने को

या फिर हवा के तेज़ बहाव के साथ आगे बढ जाने को

तलाशने नया धरातल

नयी उम्मीद, नयी आशा, नये एहसास के साथ................

Tuesday, May 20, 2008

यह शायद एक स्टोरी हो ....

( हाल ही में एक डाकुमेंटरी को शूट करने के लिए एक ख़ास जगह गया ..... ज़ाहिर है अनुभव भी ख़ास था ! मेरा एक कनिष्ठ साथी हिमांशु भी साथ था ..... उसका इस अनुभव पर क्या कहना है पढ़ लें !) हाल में पुराने भोपाल स्थित एक वृद्धाश्रम गया था । मयंक सक्सेना जी की एक डॉक्युमेंटरी के शूट के सिलसिले में। ऐसी जगहों पर आमतौर पर मेरे अन्दर का कवि जाग जाता है, पर उस दिन एक ऐसा मंज़र देखा जिसको देख कर मेरे अन्दर के कवि ने , मेरे अन्दर के पत्रकार को जगाया कि उठो और देखो तुम्हारे लिए सूचना है क्या तुम उसे स्टोरी बना सकते हो ? मैं भी अपने सभी पत्रकार भाइयों को ये सूचना दे रहा हूँ। मैं तो कोशिश कर ही रहा हूँ , अगर किसी सज्जन से बन पड़े तो इसे स्टोरी बनायें , एक स्टोरी जो किसी सार्थक अंत की ओर हो। क्यूंकि कहा जा रहा है कि मीडिया में खबरें नही हैं इसलिए खली स्टोरी बन रहा है --आसरा नाम का ये वृध्धाश्रम पुराने भोपाल में बाबे अली स्टेडियम के सामने स्थित है । यहाँ कुल ९६ वृद्ध लोगों का परिवार है , जिनमे से एक हैं पी सी शर्मा । १४ फ़रवरी १९०८ इनकी जन्मतिथि है । १०० साल पूरे कर चुके हैं पर हैं एक दम चुस्त दुरुस्त और बात चीत में कहते हैकि एक अपनी १०० साल की एक उम्र तो मैंने जी ली अब आज तो मैं ९० दिन का बच्चा हूँ .......... ये जीवट है उस व्यक्ति का , हाँ कुछ साल पहले गाय ने मार दिया था तो पेट में जख्म हो गया था , डॉक्टर ने ज्यादा चलने से मना किया है तो ज्यादातर समय व्हील चेयर पर रहता है , लेकिन फिर भी कैमरा ट्राई पोड उठा कर उसे शिफ्ट कर देता है .....ज़िंदगी पता नही कब साथ छोड़ दे पर अंग्रेज़ी उच्चारण सुधारना चाहता है , इसके लिए मुझसे एक डिक्शनरी मांगता है पर फ्री में नही , जेब में हाथ डाल कर पैसों के लिए टटोलता है....वह और भी कुछ चाहता है........ दरअसल शर्मा जी ने ब्रिटिश वायु सेना जिसे तब रोंयल एयर फोर्स कहा जाता था , के लिए १९३९ से १९५२ तक काम किया है । और वह अपनी इस सेवा के लिए ब्रिटिश सरकार से पेंशन चाहते हैं । कई चिट्ठियां लिखी हैं , पर पहले तो ब्रिटिश सरकार ने ये कह कर टाल दिया की आपकी सेवा का कोई प्रमाण नही है , जब शर्मा जी ने अपने प्रमाण पत्र भेजे जो कहा गया चूंकि भारत १९४७ में आजाद हो गया तो आपको ५२ तक फोर्स के लिए काम करने की जरुरत नही थी आपका सेवा काल सं ४७ तक ही माना जाएगा। और चूंकि पेंशन के लिए कम से कम १० साल की सेवा ज़रूरी है , इसलिए आपको पेंशन नही मिल सकती। शर्मा जी कहते हैं कि आज़ादी के वक्त वह पाकिस्तान में तैनात थे उनसे कहा गया कि रोयाल एयर फोर्स उसी तरह उनकी सेवा लेती रहेगी , वह फोर्स के नियमित कर्मचारी रहेंगे लेकिन जब पाकिस्तान में दंगे होने लगे तो शर्मा जी ने अपना नाम फकीर चंद रखा और कई मील पैदल चल के जनवरी कि ठंडक में नंगे बदन सरहद पार करके १९५३ में भारत पहुचे । उनके पास सभी प्रमाण मौजूद हैं कि वह १९५२ तक रोयाल एयर फोर्स के नियमित कर्मचारी रहे हैं। शर्मा जी कहते हैं कि लड़ाई पैसों कि नही इन्साफ की है । मैं अपने सभी पत्रकार भाइयों से अनुरोध करता हूँ कि अगर आपको लगता है कि शर्मा जी पर एक सार्थक स्टोरी बन सकता है तो कृपया जल्दी करें क्यूंकि शर्मा जी के पास वक्त नही है ........... और फ़िर आप भी तो खली से ऊब गए होंगे ! धन्यवाद ! - हिमांशु बाज्पयी असली पोस्ट देखे http://cavssanchar.blogspot.com/2008/05/blog-post_13.html

Sunday, May 18, 2008

अरे क्या हो गया रंगकर्मियो पूरा हफ्ता गुजर गया कोई नई पोस्ट नही । क्या सारे रंग सूख गये या ब्रश झाडू हो गये? ऐसा कैसा चलेगा भाईयों और बहनो, भांजों और भांजियों, भतीजों और भतीजियों, पोते और पोतियों, नातिनों और नातीयों, कुछ करो , उठाओ कलम और दौडो कागज पर। सुना है दिल्ली में तूफान और बारिश के बाद थोडी ठंडक आई है मन में भी तो नये अंकुर फूटे होंगे, तो फिर देर किस बात की । इंतजार है कुछ नई कलाकृ़तियोंका ।

Friday, May 9, 2008

मन में उमंग

पानी में तरंग मन में उमंग प्रेम की पतंग उठने दो रिमझिम बरसात धडधड प्रपात मनका अवसाद गिरने दो रात की बात सपनों का साथ हाथों में हाथ रहने दो वीणा झंकार विविध प्रकार सपनें साकार होने दो

Wednesday, May 7, 2008

स्पर्श ज़िन्दगी का ....

रफ्ता - रफ्ता बातो की कडिया जुडी ज़िन्दगी अपना वेग तेज हवा में ले उडी जमी पर अब पाओ कंहा रहे गीतों की नदिया जैसे बह चली परिचय हुआ मात्र धडकनों की चहातो का पर स्पर्श जैसे अपना ज़िन्दगी से हो गया.... कीर्ती वैद्य....1st April 2008

Sunday, May 4, 2008

आंसू भी खनकते हैं...

हंसते हैं उजालों में रातों में तड़पते हैं जज़्बात मुहब्बत के मुश्किल से संभलते हैं ये इश्क नहीं आसाँ दरिया है शरारों का जो मौज से बचते हैं साहिल पे पिघलते हैं ज़ख्मों की कमाई है ख़्वाबों के खजाने हैं पलकों की तिजोरी में आंसू भी खनकते हैं जब याद सताती है भूले से सितमगर की इक साथ कई शीशे नस नस में चट्कते हैं आंखों की लड़ाई में कुछ हाथ नहीं आता इस खेल में शातिर भी करवट ही बदलते हैं कुछ वस्ल के अफ़साने कुछ हिज्र के नजराने 'तनहा' की निगाहों में दिन रात मचलते हैं -- प्रमोद कुमार कुश ' तनहा'

Thursday, May 1, 2008

मन

मन चंचल चंचल मन कोमल कोमल मन विमल विमल अति तरल तरल मन गति, गतिमान मन शक्ती, शक्तीमान मन पवन पवन मन हवन हवन मन खल कामी दुष्ट मन शांत अति शिष्ट मन आसुरी आसुरी मन बाँसुरी बाँसुरी मन तरंग तरंग मन पतंग पतंग मन लहरा लहरा मन गहरा गहरा मन जाना पहचाना लगे दोस्त सा पुराना मन लगे अनजाना इसका न कोई ठिकाना

सुरक्षा अस्त्र

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