आज भि यही सवाल मेरे ज़हन
ढूँढ रही ना जाने कब से, मैं कौन?
शायद वो...
जो गुडयिया से घर-घर खेले
नाक -चश्मा, काँधे बस्ता
कच्ची सड़क नाप, सकूल पहुँच जाये
रोज़, ढूध इक सांस में गटक
घंटो साईकल लिए फिरे
शायद वो....
गीतों के धुन पे मोरनी बन नाचे
कटी पतंगो,कभी तितलियों के पीछे भागे
रोज़ घुटने कभी कोहनी चोट खाये
माँ की डांट पर कोने बैठ मुँह फुलाये
बहना से लड़ उसकी टोफ्फी चुरा खाये
शायद वो...
चोरी से सिगरेट के छल्ले बनाना सीखे
कभी बियर के बोतलों में ज़िन्दगी ढूंढे
कभी इक सांस में मंदिर की सीढिया चढ़े
कभी सालो इश्वर को अपने में ही ढूंढे
शायद वो...
बिन परवाह किये बिन सब बंधन तोड़ दे
अपनी हथेली सजी मेहंदी को ही रोंद दे
कभी बन पहाड़ घर-परिवार संभाले
कभी शोला बन दुनिया फूंक डाले ..
शायद वो...
इंसानी रिश्तो को बारीकी से समझे
कभी उन्ही रिश्तो में छली जाये
आधी अधूरी ज़िन्दगी को हाथो में समेटे
कभी दुनिया को अलविदा कह जाये
फिर भि अब तलक ना पता
मैं कौन ... ?
कीर्ती वैद्य ....०५ अप्रैल २००८
Monday, April 7, 2008
मैं कौन ...
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
4 comments:
शायद वो...
इंसानी रिश्तो को बारीकी से समझे
कभी उन्ही रिश्तो में छली जाये
आधी अधूरी ज़िन्दगी को हाथो में समेटे
कभी दुनिया को अलविदा कह जाये
bahut khoobsurat likha hai.
.... p k kush 'tanha'
thanxs...
कीर्ती जी बडी अच्छी कविता, बचपन की याद दिलाने वाली और धीरे धीरे जिंदगी की असलियत तक पहुंचाने वाली ।
SHUKRIYA ASHA JI
Post a Comment