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Friday, April 3, 2009

वजूद खोता हिन्दी रंगमंच

(हिन्दी रंगमंच दिवस पर विशेष)
हिन्दी रंगमंच का डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा का सफर आज हांफता नजर आ रहा है। बीते सालों में रंगकर्म को लेकर एक से बढ़कर एक प्रयोग हुए जो आज भी जारी हैं पर मल्टीप्लेक्स और सेंसेक्स के दौर में इसे बचाने और बढ़ाने की चुनौती बढ़ी है। तीन-चार वर्ष पहले विश्व रंगमंच दिवस पर अपने संदेश में गिरीश कर्नाड ने कहा था कि नाटक और बाधाओं के जन्मजात संबंध हैं। देवासुर संग्राम पर प्रस्तुत भरतमुनि का पहला नाटक ही विघ्न का शिकार हुआ था। विघ्नों-बाधाओं का यह सिलसिला आज भी जारी है। बस उनके रूप और सघनता में जरूर बदलाव आ गया है। इसलिए रंगमंच की मौजूदा चुनौतियां चिंतित करने वाली हैं।बाजार के दबाव ने गंभीर संस्कृति कर्म और समूची सृजनात्मकता के सामने संकट पैदा कर दिया है। कला के मनोरंजन उघोग में बदलने के चलते नाटक को कौन पूछेगा ! लोक और पारंपरिक दर्शक से कटकर मंचीय हिन्दी नाटक मूल रूप से शहरी मध्य वर्ग तक सीमित है। इस दर्शक वर्ग को लुभाने व पथ विचलित करने के लिए तमाम ‘कला उत्पाद’ मौजूद हैं, जो थोड़े खाते-पीते लोग नाटक के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने में मदद करते थे, उन्होंने भी अपने हाथ खींच लिए हैं। प्रेक्षागृह दिन-दिन महंगे होते जा रहे हैं और रंग संस्थाएं प्रायोजकों की आ॓र ढकेली जा रही हैं, क्योंकि टिकिट खरीदकर नाटक देखने की आदत हमारे क्षेत्र में छूट चुकी है। निशुल्क निमंत्रण पत्रों, एसएमएस और व्यक्तिगत अनुरोध पर लोग नाटक देखने आ जाते हैं, यही बहुत है।नुक्कड़ नाटक भी व्यापारिक संस्थाएं, एनजीआ॓ और सरकारी प्रतिष्ठान छीन चुके हैं। पिछले दिनों मध्यप्रदेश सरकार ने 1857 की 150वीं वर्षगांठ पर नुक्कड़ नाटक अभियान चलवाया। हर नाट्य-दल को प्रतिदिन 30 हजार रूपये का मेहनताना मिला और बदले में उन्हें चुनाव चिह्न कमल को प्रचारित करने को कहा गया। पैसे के प्रलोभन में कई समर्पित युवक-युवतियां अपनी मूल संस्थाएं छोड़कर इस मुहिम में लग गए। छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्रालय में करोड़ों के नुक्कड़ नाटक घोटाले की खबर है। हिन्दी क्षेत्र की अधिकांश नाट्य संस्थाएं अव्यावसायिक हैं। वे अपने कलाकारों की आर्थिक मदद कर नहीं पातीं। रिहर्सल में आने-जाने के अलावा वे दूसरे छोटे-मोटे खर्चे भी खुद उठाते हैं। आमतौर से अभावग्रस्त परिवारों के नौजवान ही नाटक से जुड़ते हैं, क्योंकि भरे पेट वालों के दूसरे शगल हैं। इसलिए रोजी-रोटी के जुगाड़ की भी समस्य रहती है और घरवालों के दबाव भी। इस वजह से कलाकारों में टिकाऊपन नहीं होता। वहीं थोड़े से लोग टिक पाते हैं, जिनमें सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिबद्धता होती है या कला से भावुक जुड़ाव। फिर शार्टकट का भी जमाना है। बहुत से इसलिए भी आते हैं कि थोड़े दिन थियेटर कर लो, फिर टीवी या फिल्म के लिए स्ट्रगल करने का रास्ता पकड़ो।सरकारी धन से पोषित संस्थाओं, अकादमियों, सांस्कृतिक विभागों आदि से उम्मीदें रखना बेमानी है। एक तो उनके पास उतने ही फंड होते हैं कि वे अपने कर्मचारियों का वेतन दे सकें, दूसरे बड़ा हिस्सा उत्सवों-समारोहों पर खर्च हो जाता है। पीएन हक्सर कमेटी की सिफारिशों के बावजूद इन संस्थाओं का संचालन प्राय: नौकरशाहों के हाथ में है। नतीजतन गंभीर सांस्कृतिक क्रिया-कलाप का वातावरण बनाने में उनका योगदान नगण्य है। ऊपर से स्थानीय प्रशासन भी अड़ंगे डालता है। उत्तर प्रदेश में ड्रेमेटिक पर्फोमेंसेज एक्ट 1876 पिछले 55 साल से लागू नहीं है, फिर भी नाट्य संस्था से अपेक्षा की जाती है कि वह प्रेक्षागृह में प्रस्तुति से पहले पुलिस की अनापत्ति और प्रशासन की अनुमति ले। नाटक और बाधाओं का जन्मजात संबंध है। नाटक मरा नहीं और न मरेगा। हां, नाट्यकर्मियों पर नई जिम्मेदारी है। उन्हें कला का ऐसा मुहावरा पकड़ना होगा, जो ज्यादा से ज्यादा दर्शकों को आकर्षित करे। जिसका कथ्य मारक हो। जनता का विवेक और संवेदना जगाने के लिए अपने औजारों को और पैना व धारदार बनाना होगा। शहर से कस्बों व गांवों में जाना पड़ेगा। साथ ही प्रबंधन के नये फंडे खोजने पड़ेंगे। परिस्थितियां जो भी हो, नाटक नहीं रूकेगा।
(लेख इप्टा के राष्ट्रीय महासिचव डा. जितेन्द्र रघुवंशी से वरिष्ठ पत्रकार योगेन्द्र दुबे की बातचीत पर अधारित)

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