Monday, March 3, 2008
आग
मेरे अंदर एक आग जल रही है
जो मुझे चैन से जीने नही देती ।
वैसे भी एक स्त्री को जीने के लिये चाहिये क्या
पेट भर खाना, कपडा और सिर पे छत,
शायद थोडे से जेवर थोडे अच्छे कपडे
मैं अपनी आग को समेट कर मुस्कुराती हूँ
मेहमानों का स्वागत करती हूँ
घरवालों को खुश रखने का भरसक प्रयास करती हूँ
लेकिन कोई मुझे भीतर से कचोटता रहता है
क्यूं नही मैं अपने स्वत्व को ललकारती
क्यूं नही अपनी अस्मिता को उभारती
क्यूं नही अपना आप निखारती
क्यूं , क्यूं, क्यूं,
मेरे अंदर की यही आग मुझे जला रही है
जो मुझे चैन से जीने नही देती ।
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3 comments:
आपकी रचना मे जो आग दिखती है.. वो कहीं ना कहीं कई महिलाओं की आग है। रचना के माध्यम से की गयी ये अभिव्यक्ति अपने आप मे सम्पूर्ण प्रतीत होती है। और इसी से निर्माण होता है एक सुन्दर रचना का..........
शुभकामनाऐ
परवेज़ सागर
आशा जी, आपकी कविता समाज मे नारी प्रतिभा को सही सम्मान व स्थान न मिलने से उपजे दर्द की सही अभिव्यक्ति हॆ.फिर भी घर की चौखट मे बंध कर रहने वाली नारी का भी समाज के विकास मे महत्वपूर्ण योगदान होता हॆ. आने वाले कल मे शायद यह असमानता न दिखायी दे. और जिस दिन ऎसा हुआ उस दिन मानव सभ्यता सम्पूर्णता के दहलीज मे खडी होगी .
bhut khoob...
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