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Saturday, March 1, 2008

बजट या चुनावी घोषणापत्र ?

बचपन से ये नसीहतें सुनता आया हूं - बजट बनाकर काम करो। जितना बजट एलॉउ करे उतना ही ख़र्च करो। कभी घरवालों से, कभी बड़े-बूढ़ों से तो कभी दोस्तों से। हां, ये अलग बात है कि ये कला अभी तक नहीं सीख पाया। ख़ुद न सीख पाने की नाकामी कहें या कुछ और... पर अब मैं भी मानने लगा हूं कि बजट बनाना एक महान कला है। जो इस कला में पारंगत हैं, उसके धनी होने की उम्मींद बढ़ जाती है। कल जब चिदंबरम साहब का बजट देखा तो ये क्लियर हो गया कि चुनावों में कामयाबी का रास्ता भी बजट से ही होकर जाता है। यानि बजट कामयाबी की सीढ़ी है। हर बजट एक योजना है...एक जुगत है...कभी मौजूद संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल की, कभी पैसे बचाने की, तो कभी चुनाव जीतने की। लेकिन, चिदंबरम जी के बजट को क्या कहें......ये आप तय करें। वैसे कल के बजट ने आज के अख़बारों की सुर्खियां ख़ूब बटोरी हैं। भले ही कुछ राजनीतिक पार्टियां और मीडियावाले इसे चुनावी बजट बता रहे हों, लेकिन हर ख़ासोआम अख़बार-टीवी में चीजों की कीमतों के घटने की घोषणा देख-देख कर चिदंबरम साहब की जय बोल रहा है। कम-से-कम टीवी में दिखाए गए वॉक्सपॉप तो यही साबित करने में लगे हैं। ये सब देख-सुनकर मन में कुछ सवाल कुलबुला रहे हैं........जितने भी बजट पहले देखे हैं उनमें सरकार कभी तो ग़रीब किसानों के कर्ज़ माफ़ करती आई है, कभी आयकर का दायरा बढ़ा देती है तो कभी क़ीमतें घटती हैं। घोषणाएं ऐसी होती हैं जैसे बस एकदम देश की तस्वीर बदलने वाली है। लेकिन तस्वीर तो बद से बदतर होती जा रही है। अमीरी और ग़रीबी के बीच की खाई पाटे नहीं पट रही। सरकार किसानों को कर्ज़ देती है, वो जब चुका पाने में नाकाम होते हैं तो ख़ुदकुशी करने लगते हैं। फिर कर्ज़ माफ़ी की घोषणा हो जाती हैं। लेकिन, वो रास्ता कभी नहीं तलाशा जाता जिससे किसान आत्मनिर्भर हो सके। उसे कर्ज़ लेने की नौबत ही न आए। ऐसी नीतियां क्यों नहीं बनतीं कि किसानों को सस्ते ब्याज़ दर में लोन मिले और वो उसे चुका पाए। भीख चाहे 60 करोड़ की ही क्यों न हो, सराही तो नहीं जा सकती। देश की समस्याओं से लड़ने का बजट क्यों नहीं बनाया जाता, गरीबी हटाने का बजट कब बनेगा? जब चुनाव आने वाले होते हैं तो अक़्सर सरकारें लुभावने बजट देती हैं, लेकिन इससे किसानों को, ग़रीबों को कितना फ़ायदा पहुंचता है ये किसी से छिपा नहीं है। बहरहाल... अब तो बजट पेश करते वक़्त जनता को सुनहरे ख़्वाब दिखाने का ट्रेंड भी शुरू हो रहा है। हर रूलिंग पार्टी का लास्ट बजट....बजट कम चुनावी घोषणापत्र अधिक जान पड़ता है। ये बात केवल लालू के रेल बजट या चिदंबरम के आम बजट की नहीं है, पिछल कुछ सालों के बजट के दौरान हुई घोषणाएं इस बात को पुख़्ता आधार देती हैं।

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