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Sunday, November 8, 2009

माओवादियों के संबंध में कुछ मुद्दे

लालगढ़ में माओवादी नेता ने स्वयं ही बताया है कि नंदीग्राम मामले में उन्होंने किस तरह तृणमूल कांग्रेस की मदद की थी और किस तरह तृणमूल कांग्रेस ने लालगढ़ में उनके साथ मिलकर काम किया। इस बीच तृणमूल के नेता केन्द्र में यूपीए सरकार के मंत्री बन चुके थे। अतः उस माओवादी नेता को अपेक्षा थी कि एवज में तृणमूल का नेतृत्व केन्द्र पर दबाव बनाए कि वह लालगढ़ के आपरेशन में पश्चिम बंगाल सरकार के साथ सहयोग न करे। यह माओवादियों और तृणमूल कांग्रेस के बीच साँठगाँठ का आँखों देखा विवरण है जिसमें कांग्रेस भी शामिल हो गई। यह साँठगाँठ किन दीर्घकालिक या अल्पकालिक लक्ष्यों के लिए है? अल्पकालिक लक्ष्य सामने नजर आते हैं। लक्ष्य-है आम अराजकता एवं अव्यवस्था के हालात पैदा कर, वाममोर्चा सरकार को अस्थिर बनाया जाए। स्थिति को और अधिक उकसाने-भड़काने के लिए तृणमूल मंत्री उस इलाके में जाते हैं और इस तरह वे लालगढ़ में माओवादियों की मदद करते हैं। पर उनके दीर्घकालिक उद्देश्य क्या हैं? पश्चिम बंगाल में तृणमूल और कांग्रेस को सत्ता में लाना क्या माओवादियों की व्यापक कार्यनीति का एक हिस्सा है? ऐसा नहीं कि माओवादी इस समस्या को न जानते हों। असल में, चुनाव बाद की स्थिति पर, उनकी रिपोर्ट में माओवादियों ने इस बात का नोट लिया है कि ‘‘विडम्बना है कि ममता की तृणमूल कांग्रेस, वाममोर्चा सरकार द्वारा शुरू किए गए आर्थिक सुधारों का अपने स्वयं के कारणों से तीव्र विरोध कर रही थी।’’ इन्होंने पश्चिम बंगाल में अराजकता और हत्या का जो अभियान छेड़ रखा है उसमें दोनों पार्टियाँ जिस तरह घनिष्ठ रूप से मिलकर काम कर रही हैं उसके बारे में इन पार्टियों को काफी सफाई देनी होगी। इसी तरह कांग्रेस को भी सफाई देनी होगी जो अपने संकीर्ण हित साधने के लिए उन्हें पश्चिम बंगाल में बढ़ावा दे रही हैं। अब ‘‘हत्याओं और व्यक्तियों की राजनैतिक मकसद से हत्या और किसी झगड़े में न शामिल लोगों के खिलाफ हिंसा के व्यवहार के मुद्दे पर आते हैं। इस सम्बंध में विश्व के एक महानतम क्रांतिकारी, एक जीवित महानायक फिडेल कास्ट्रो ने इन विषयों पर अत्यंत प्रबोधक राय जाहिर की है। उन्हें स्वयं भी विश्व की सबसे ताकतवर सैन्य शक्ति-अमरीकी साम्राज्यवाद के हमलों का मुकाबला करना पड़ा और वह भी कोई एक या दो बार नहीं, अमरीका पिछले 50 वर्षों से अधिक समय से लगातार हमले करता आ रहा है। इस एवं अन्य विषयों पर कास्ट्रों के विचारों का एक सार-संग्रह एक पुस्तक के रूप में छपा है-‘‘फिडेल के साथ बातचीत’’। इस लेख में स्थान की कमी के कारण हम उनके कुछ ही उद्धरण दे रहे हैं जो इसी पुस्तक से लिए गए हैंः- प्रश्न-क्या आपने, उदाहरणार्थ, बाटिस्टा की फौजी टुकड़ियों के विरूद्ध आतंकवाद का सहारा लिया या राजनैतिक मकसद से हत्याओं की साजिशों का रास्ता अपनाया? उत्तर-न तो आतंकवाद और न ही राजनैतिक मकसद से हत्या। आप जानते हैं, हम बाटिस्टा का विरोध करते थे पर हमनें उन्हें जान से मारने की कोशिश कभी नहीं की, हालाँकि हम इसमें कामयाब हो सकते थे क्योंकि उनकी स्थिति ऐसी थी कि उन पर ऐसे हमले किए जा सकते थे। पहाड़ों में उनकी सेना के विरूद्ध संघर्ष करना या एक ऐसे किले पर फतह पाना, जिसकी रक्षा एक पूरी की पूरी रेजीमेंट करती हो, कहीं अधिक कठिन काम था। प्रश्नः कार्रवाई के उस सिद्धांत के बारे में, जिसमें निर्दोष लोग शिकार बन सकते हैं, आपका क्या विचार है? उत्तर-इसके बजाय युद्ध के बारे में बोलते हुए मेरा कहना है कि हमें इस तरह की समस्या से निपटने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि हमारा युद्ध 25 महीने चला और मुझे एक भी मामला याद नहीं कि हमारे पहले दस्ते ने जो लड़ाइयाँ लड़ीं उनमें कोई असैनिक व्यक्ति मारा गया हो, मुझे अन्य सेना प्रमुखों से पूछना होगा कि क्या उन्हें सैनिक कार्रवाइयों के दौरान ऐसी किसी घटना की याद है। हमारा सिद्धांत यह था कि निर्दोष लोगों को खतरे में न डाला जाए, यह हमारा दर्शन था। यह एक सिद्धांत था जिसका हमने हमेशा पालन किया, एक कट्टर सिद्धांत की तरह। ऐसे मामले हुए थे जिनमें गुप्त लड़ाकों ने, जो आंदोलन से सम्बंध रखते थे, बम चलाए, वह भी क्यूबा में क्रांतिकारी संघर्षों की परम्परा का एक हिस्सा था। पर हम वैसा नहीं करना चाहते थे, हम उस तरीके से सहमत नहीं थे। जहाँ कभी लड़ाई के दौरान असैनिक लोगों को जोखिम होता हम उनका सचमुच ख्याल रखते थे। प्रश्नः आज विश्व में अन्यत्र ऐसे हिंसक ग्रुप हैं जो राजनैतिक उद्देश्यों पर आगे बढ़ने के लिए अंधाधुंध राजनैतिक हत्याओं और आतंकवाद का सहारा लेते हैं। क्या आप ऐसे तरीकों को अस्वीकार करते हैं? उत्तर-मैं आपको बता रहा हूँ कि आप आतंकवाद पर चलते हुए किसी युद्ध को जीत ही नहीं सकते, क्योंकि युद्ध को जीतने के लिए आप को जिस जनता को अपने पक्ष में रखने की जरूरत हैं आप उससे उस जनता का विरोध, उससे दुश्मनी और उसकी अस्वीकृति मोल लेंगे। मैंने आपसे जो कुछ कहा है उसे मत भूलेंः हम पहले ही माक्र्सवादी लेनिनवादी शिक्षा पा चुके थे, और मैंने आपको बताया था हमारे क्या विचार थे। उस शिक्षा ने हमारी कार्यनीतियों को प्रभावित किया। जब आप जानते हैं इसमें कोई समझदारी नहीं है तो राजनैतिक हत्याओं का सहारा लेने की जरूरत नहीं। न तो हमारी स्वतंत्रता के सिद्धांतकारों ने और न ही उन लोगों ने, जिन्होंने हमें माक्र्सवादी लेनिनवादी विचारधारा की सीख दी, राजनैतिक हत्याओं की या ऐसी कार्रवाइयों की, जिनमें निर्दोष लोग मारे जा सकते हैं, वकालत की। क्रांतिकारी सिद्धांत जिन तरीकों की अपेक्षा करते हैं उनमें ये तरीके शामिल ही नहीं थे। उस नीति और सैनिक कार्रवाई सम्बंधी अवधारणाओं के बिना हमने उस युद्ध को नहीं जीता होता। प्रश्नः तथापि, सिएरा माऐस्ट्रा में आपको ‘‘क्रांतिकारी अदालत’’ स्थापित करनी पड़ी थी जो आपको मौत की सजा लागू करने की दिशा में ले गई, क्या ऐसा नहीं है? उत्तर-हमने यह सिर्फ देशद्रोह के मामलों में किया। मौत की सजा दिए गए लोगों की संख्या अत्यंत कम थी। एक ऐसे समय जब हमारी सेना अत्यंत सीमित थी, हम मुश्किल से 200 लोग ही थे, मुझे विद्रोही सेना के शत्रु के साथ सहयोग करने वाले समूह के कुछ लोगों द्वारा लूट और डकैती के मामले अचानक सामने आने की बात याद आती है। हमारे लिए लूट एवं डकैती की बातें अत्यंत विनाशकारी हो सकती थीं, और हमें उनमें से कुछ को एकदम फाँसी ही देनी पड़ी। उनमें से जिन लोगों ने घरों को या दुकानों को लूटा था उन पर मुकदमा चलाया गया और उस मौके पर युद्ध के बीच में हमने उन्हें फाँसी की सजा दी। वह अपरिहार्य था, और असरदार था, क्योंकि उसके बाद विद्रोही सेना के किसी सदस्य ने कोई दुकान नहीं लूटी। एक परम्परा बन गई। क्रांतिकारी नैतिकता एवं जनता के प्रति चरम सम्मान की बातें प्रचलित एवं प्रबल रहीं। का. फिडेल कास्ट्रो ने अपनी विशिष्ट विनम्रता के साथ आगे कहा कि उन्होंने जो गुरिल्ला युद्ध लड़ा वह नैतिकता के सिद्धांतों को ध्यान में रखने वाला कोई एकमात्र युद्ध नहीं था। उससे पहले वियमतनाम के देशभक्तों और ऐसे अन्य क्रांतिकारियों ने भी इन्हीं नैतिक सिद्धांतों को अपनाया था। नैतिकता का आचार महज एक नैतिकता का प्रश्न नहीं है। उन्होंने कहा कि नैतिकता, यदि निष्कपट एवं सच्ची हो तो उससे कुछ अच्छा फल मिल सकता है। ‘‘हमने यदि उस सिद्धांत पर अमल न किया होता तो लड़ाके संभवतः यहाँ-वहाँ कुछ कैदियों को गोली मार देते और तमाम किस्म के निंदनीय काम किए होते। अन्याय एवं अपराध के विरूद्ध इतनी अधिक घृणा थी।’’ मैं अच्छी तरह समझता हूँ कि कोई भी व्यक्ति यह नहीं समझ सकता कि कास्ट्रो भावुक उदारवादी थे। वह एक क्रांतिकारी हैं और उन्होंने एक सिद्धांत, एक दर्शन के रूप में और क्रांतिकारी युद्ध के दौरान एक कार्यनीति के रूप में क्रान्तिकारी नैतिकता की चर्चा की है। क्रांतिकारियों को हमेशा ही अपने स्वयं के अनुभवों एवं व्यवहार से और अन्य क्रांतिकारियों के अनुभवों एवं व्यवहार से सीखना चाहिए। फिडेल कास्ट्रों के इन विचारों के बारे में माओवादियों का क्या कहना है? प्रतिबंध पर गृह मंत्रालय के सुझाव भारत सरकार का गृह मंत्रालय पश्चिम बंगाल में सी0पी0आई0 (माओवादी) पर प्रतिबंध लगने के लिए दबाव डालता रहा है, जैसा कि कई राज्यों में किया गया है और केन्द्र ने भी किया है। सी0पी0आई0 ने प्रतिबंध के सुझाव का विरोध किया है। सी0पी0आई0 (एम) और अन्य वामपंथी पार्टियों ने भी वैसा ही किया है। अतः पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार ने प्रतिबंध की घोषणा नहीं की है। यह बिल्कुल अलग बात है कि केन्द्र का प्रतिबंध कुल भारत पर लागू होता है और इस कारण पश्चिम बंगाल पर भी लागू होता है। क्या इसका अर्थ यह है कि प्रतिबंध के सम्बंध में वाममोर्चा की अनिच्छा या इंकार महज एक आडम्बर है? पहली बात तो यह है कि माओवादियों पर प्रतिबंध का उल्टा नतीजा निकलता है, और यह एक निरर्थक कोशिश है। भारतीय राजनैतिक मैदान में वे खुलेआम काम नहीं करते हैं। सशस्त्र संघर्ष, लम्बे युद्ध की उनकी कार्यनीति देश के खुले कानूनी ढाँचे में नहीं चलायी जाती है। जब बात इस तरह की है तो उनकी गतिविधियों पर प्रतिबंध से उनकी कार्यवाइयों पर कोई अंकुश कैसे लगता है, उनकी कार्रवाइयां कैसे रुकती हैं? दूसरी बात यह है कि किसी राजनैतिक पार्टी पर प्रतिबंध की घोषणा का अर्थ है समस्या के राजनैतिक समाधान की और सम्बंधित पार्टी के साथ राजनैतिक वार्ता की तमाम कोशिशों को छोड़ना, उसे कोई राजनैतिक जगह देने से इंकार करना और उस स्थिति को न देखना या स्वीकार न करना जिसने इस समस्या के पैदा होने और बढ़ाने का काम किया है। यदि कोई पार्टी या संगठन प्रतिबंध से पहले खुलेआम काम करता है तो प्रतिबंध उसे भूमिगत काम करने की तरफ धकेल देता है। इससे समस्या हल नहीं होती, और न ही वह पार्टी या संगठन प्रतिबंध के कारण गायब हो जाता है। अन्य बातों के अलावा इन कारणों से हम नहीं समझते कि प्रतिबंध माओवादी कार्रवाइयों से पैदा होने वाली समस्या का कोई जवाब है। अधिक से अधिक प्रतिबंध भविष्य में बनने वाले कुछ समर्थक या हिमायती लोगों को प्रतिबंधित पार्टी से दूर रहने के लिए असर डाल सकता है या डरा सकता है। ‘‘आतंकवाद’’ को और ’’वामपंथ उग्रवाद’’ (वर्तमान मामले में माओवाद का दूसरा नाम) को एक तराजू से तौलना, जैसा कि सरकार करती है, पूरी तरह गलत और अनुचित है। इससे पता चलता है कि सरकार इन दोनों बातों के चरित्र और मूल कारणों को नहीं जानती, समझती। ये दोनों बातें हथियारों की मदद से हिंसा में अभिव्यक्ति पाती हैं। जिससे सुरक्षा बलों के कर्मियों के अलावा मासूम लोगों की जानें जाती हैं-यह पहलुओं को सतही एवं ऊपरी तौर से देखने की बात है। माओवादी समस्या के कुछ सामाजिक आर्थिक आयाम हैं। यह समस्या अधिकांश उन क्षेत्रों में हैं, जो दूर दराज के और पिछड़े और उपेक्षित क्षेत्र हैं और जहँा सामन्ती एवं अर्ध-सामन्ती शोषण चरम सीमा तक एवं व्यापक पैमाने पर जारी है। ऐसे क्षेत्रों में माओवादियों को अपनी गतिविधियाँ चलाने और अपने असर के दायरे को बढ़ाने के लिए अनुकूल जमीन मिलती है। यह मुख्य धारा की कम्युनिस्ट पार्टियों की विफलता है कि यह मैदान उनके लिए खुला पड़ा है। पर माओवादियों पर यह इल्जाम लगाना कि वे विकास का विरोध करते हैं इस हकीकत को छिपाने की बात है कि माओवादी ठीक उन्हीं सर्वाधिक पिछड़े इलाकों में अपनी गतिविधियाँ चला रहे हैं, जो सरकार एवं प्रशासन द्वारा कई दशकों से उपेक्षित पड़े हैं। निश्चय ही, इन इलाकों को अपना आधार बनाकर माओवादी अब अपनी गतिविधियों को अन्य इलाकों तक फैलाने में कामयाब हैं। अतः चाहे वह केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार, उसे उन सामाजिक आर्थिक समस्याओं का समाधान करना होगा, जिन्होंने माओवादियों को पैदा करने और बढ़ाने का काम किया है। इससे केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या के रूप में निपटने से काम नहीं चलेगा। जब कभी और जहाँ कहीं अराजकता और लोगों की हत्याओं से निपटने के लिए पुलिस कार्रवाइयाँ करनी हों और इस तरह जनता को सुरक्षा प्रदान करनी हो तब भी इस समस्या के सामाजिक, आर्थिक पहलू को भुलाया नहीं जा सकता है। सी0पी0आई0 (माओवादी) और तृणमूल कांग्रेस का एक दूसरे के साथ हो जाना और लालगढ़ में कांग्रेस का उनको मौन समर्थन-यह बहस का मुद्दा रहेगा। कौन किसके मकसद पूरे कर रहा है और इसका अंतिम लक्ष्य क्या है? अपने इस तरह के दृष्टिकोण और कार्रवाइयों से माओवादी क्रांति के उद्देश्य के लिए भारत की जनता के अत्यधिक विशाल संख्या को अपने समर्थन में नहीं खींच सकते। वास्तव में इससे उस उद्देश्य एवं लक्ष्य को नुकसान पहुँच रहा है जिसके लिए कम्युनिस्टों ने अपने जीवन को समर्पित कर रखा है। -का. ए. बी. बर्धन समाप्त

1 comment:

Asha Joglekar said...

बर्धन जी का ये लेख अपने ब्लॉग पर प्रकाशित कर आपने माओवादियों के आंदोलन को अदिक अच्छी तरह जानने का मौका दिया है पर अपने राजनैतिक हितों के लिये सामान्य जनता को कुचलने से न कतराने वाले रानैतिक दल किस हद तक जायेंगे ?

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