Saturday, November 7, 2009
माओवादियों के संबंध में कुछ मुद्दे - 2
यह याद किया जा सकता है कि जैसे ही कांगे्रस एवं विपक्ष के नेता महेन्द्र कर्मा ने ‘सलवा जुडुम‘ नाम से समाज में अपराध एवं अव्यवस्था को रोकने की कोशिश में स्वयं-नियुक्त समूह का गठन किया तो सीपीआई ने रायपुर में एक प्रेस कांफ्रेंस की, और यह कहते हुए इसकी निंदा की कि यह माओवादियों को आदिवासियों के विरूद्ध लड़ाने की और उनके बीच गृहयुद्ध पैदा करने की कोशिश है। उसके बाद सलवा जुडुम के विरूद्ध होने वाली सबसे बड़ी रैली भी सीपीआई ने जगदलपुर में, लोहांडीगुडा और दांतेवाडा में आयोजित की थी और सीपीआई के सर्वोच्च नेताओं ने उन रैलियों को सम्बोधित किया था। इस घृणित मुद्दे के मामले में कांग्रेस और भाजपा हाथ मेें हाथ मिलाकर काम कर रहे थे। ये सब सुपरिचित तथ्य हैं।
मुम्बई का उदाहरण, जहाँ केवल 43.52 प्रतिशत लोग मतदान के लिए आए और जिसका जिक्र माओवादियों ने बड़ी खुशी जाहिर करते हुए किया है, सर्वथा गलत है। न ही यह इस कारण है कि उस शहर के आधिकांश लोगों की नजर में संसदीय व्यवस्था ने अपनी तमाम विश्वसनीयता खो दी थी। यह माओवादियों की साफ-साफ आत्मपरकता है। मुम्बई में कम मतदान के लिए अन्य कारक जिम्मेदार हैं।
किसी खास मामले में, किसी खास समय पर, विशेष परिस्थितियों के कारण बहिष्कार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की बात को तो समझा जा सकता है, पर ‘‘एक उल्लेखनीय रूझान के उभरने’’ के रूप में और संघर्ष के एक सर्वाधिक प्रभावशाली तरीके के रूप में इसे बताना, इसे एक सबसे अच्छी नीति, आंदोलन की एक आम कार्यनीति की हैसियत देना है। बहिष्कार संघर्ष का एक विशेष तरीका हो सकता है जो किसी विशेष परिस्थिति के लिए ठीक हो। यह संस्था (यानी संसद) के चरित्र से पैदा नहीं होता। यह एक ऐसा तरीका है जिसे संसदीय चुनाव कराए जाने को रोकने के लिए किया जा सकता है, उदाहरण के लिए ऐसे में जबकि कोई क्रांतिकारी उभार हो रहा हो और शासक वर्ग उस उभार को किसी इस या उस तरीके से डाइवर्ट करने की कोशिश करें।
संसद और उसकी प्रासंगिकता
हम कम्युनिस्ट वर्तमान व्यवस्था की कमियों-खामियों को पूरी तरह से जानते हैं। इसके सम्बंध में अनुभव हमारे सामने हैं। 543 में से 145 संसद सदस्य अपने निर्वाचक गणों में से 20 प्रतिशत से भी कम मतदाताओं के मत प्राप्त कर जीते हैं। अतः वे दावा नहीं कर सकते कि वे वास्तव में अपने चुनाव क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। विभिन्न पार्टियों के अनेक उम्मीदवार होते हैं और निर्दलीय उम्मीदवार भी बीच में होते हैं-तो इतने सारे उम्मीवादरों के बीच मुकाबला इस तरह का हो जाता है कि इन उम्मीदवारों के बीच मत बँट जाने के कारण कोई उम्मीदवार 10 प्रतिशत से कम वोट हासिल कर, भी चुनाव जीत सकता है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए कुछ देशों में ऐसे प्रावधान हैं कि यदि किसी उम्मीदवार को 50 प्रतिशत से अधिक (50 प्रतिशत जमा एक) वोट न मिले तो फिर पहले और दूसरे स्थानों पर आए उम्मीदवारों के बीच में चुनाव कराया जाता है। पर भारत ने निष्ठापूर्वक ब्रिटिश प्रणाली को अपनाया है जिसमें इस तरह का प्रावधान नहीं है।
आज जो पूँजीवादी व्यवस्था मौजूद है, उसमें पैसा ही प्रधान है, अनेक स्थानों पर वोट पूर्णतया खरीदे जाते हैं और धन-बल की एक बड़ी भूमिका रहती है। इस तरह चुनाव लड़ना गरीब और आम आदमी की पहुँच से दूर होता जा रहा है। अतः इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि वर्तमान लोकसभा में 300 सदस्य ऐसे चुनकर आए हैं जिन्होंने स्वयं ही माना है कि वे करोड़पति हैं। अन्य अनेक संसद-सदस्य पैसे वालों के समर्थन से आए हैं और वे वस्तुतः पैसे वालों की जेब में हैं। अनेक अपराधी भी संसद के दोनों सदनों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
वर्तमान संसदीय प्रणाली के इन एवं अन्य पहलुओं की अनदेखी नहीं की जा सकती। पर क्या इससे यह नतीजा निकाला जा सकता है कि संसद एक ‘‘गली-सड़ी, सड़ांध मारती संस्था’’ है, ‘‘बक-झक करने की जगह’’ है और इसके अलावा अन्य कुछ नहीं? विधायिका के चुनाव में भारत की जनता नियमित रूप से भारी संख्या में हिस्सा लेती है। भारत के लोग सरकारों को बदलना जानते हैं, जिस पार्टी को पसंद नहीं करते उसे सत्ता से हटाना जानते हैं और शासक वर्ग के गलती करने वाले संसद सदस्यों को उनकी जनविरोधी नीतियों के लिए सजा देना जानते हैं। अनेक ‘‘जनता के सदस्य’’ भी विभिन्न कारणों से दुर्भाग्यतः चुनाव हार जाते हैं। पर कुल मिलाकर लोग आंदोलन करने में और महत्वपूर्ण मुद्दों को समाधान के लिए उठाने में और सरकारों पर लगाम लगाने आदि में कामयाब हुए हैं, खासकर जब कभी संसदीय संघर्ष के साथ ही साथ जनसंघर्ष भी चल रहा होता है। पर निश्चय ही तमाम मामलों में जनगण की कार्यवाइयाँ ही निर्णायक कारक होती हंै। यद्यपि यह बात हर बार संसद में सही-सही नहीं झलक पाती है। इसके लिए संघर्ष को जारी रखना होगा।
जैसा कि हम देखते हैं कि संसदीय प्रणाली की कुछ सीमाएँ, कुछ कमजोरियाँ हैं, पर लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसकी प्रासंगिकता है।
भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन ने शुरू से ही समानुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली के लिए जोर दिया है। इससेे ‘‘जिसे सबसे अधिक वोट मिले वही जीता’’ की प्रणाली खत्म हो जाएगी क्योंकि इस प्रणाली से आमतौर पर ऐसी सरकार बनती है जिसे अल्पमत वोट मिले होते हैं। वर्तमान सरकार समेत हमारी अधिकांश सरकारें इसी तरह बनी हैं।
कम्युनिस्ट अंादोलन किसी निर्वाचित सदस्य को, जिसने जनता का विश्वास खो दिया है, ‘‘वापस बुलाने’’ के प्रावधान के पक्ष में रहा है।
हमने उपर्युक्त कुछ बातंे यह दिखाने के लिए कहीं हैं कि चुनाव प्रणाली एक ऐसा मुद्दा नहीं है कि उसे यों ही आसानी से खारिज किया जा सके, बल्कि इसके लिए राजनैतिक चेतना को बढ़ाने, वर्ग संघर्ष को विकसित करने के साथ ही साथ हरेक महत्वपूर्ण एवं ठोस मुद्दे पर जन कार्यवाई को चलाने की जरूरत है।
अन्य पार्टियों के कार्यकर्ताओं को मारने, कत्ल करने के सम्बन्ध मंे
स्थानीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर अनेक कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि पार्टी के उन सामान्य कामरेडों की हत्या, जो लालगढ़ इलाके में पंचायतों के सदस्य हैं, से माओवादियों के स्टैण्ड और दृष्टिकोण के सम्बंध में कुछ सवाल उठे हैं। इन कार्यकर्ताओं के घरों को जला दिया गया, सी0पी0आई0 (एम) और सी0पी0आई0 के दफ्तरों में तोड़फोड़ की गई है। यहाँ तक कि पार्टी दफ्तरों पर लहराने वाले लाल झण्डों को भी जलाया गया है। कहने की जरूरत नहीं कि इससे न केवल इन पार्टियों के पीछे चलने वाले लोग बल्कि अन्य लोकतांत्रिक तबके भी नाराज हुए हैं। संचार माध्यमों के कुछ हिस्सों द्वारा इन घटनाओं को ‘‘प्रतिशोध हत्या’’ के रूप में पेश करने की कोशिश को सही नहीं माना जा सकता है। यदि इसे सही मान लें तो यह श्रृंखला कहाँ जाकर खत्म होगी?
यदि सशस्त्र झगड़े के दौरान कोई व्यक्ति मारा जाता है तो बात समझ में आ सकती है। पर यदि किसी व्यक्ति को उसके घर से बाहर खींच कर या घात लगाकर या रास्ते में पकड़कर उसे गोलियों से छलनी कर दिया जाए तो इस बात को माओवादी किस तरह ठीक ठहराते हैं? क्या यह सोचे-समझे तरीके से हत्या से किसी तरह से कोई अलग चीज है? क्या निर्दोष नागरिकों की हत्या को वे ‘‘दुर्घटना’’ या ‘‘आनुषंगिक नुकसान’’ कहकर खारिज कर सकते हैं? अमरीकी साम्राज्यवादी प्रायः इस तरह के बहाने पेश करते हैं।
माओवादी इस आरोप से बच नहीं सकते, और वे इस बात को जानते हैं। यही कारण है गणपति से इण्टरव्यू के दौरान एक प्रश्न पूछा गया और महासचिव ने 2007 के एक मामले का, यानी झारखण्ड मुक्तिमोर्चा के नेता और जमशेदपुर के संसद सदस्य सुनील महतों की हत्या का जिक्र कर जवाब दिया।
अपने उत्तर में गणपति कहते हैं, ‘‘हम एक बात स्पष्ट करना चाहते हैं, हम राजनैतिक पार्टियों के नेताओं या साधारण सदस्यों की अंधाधुंध हत्याओं के पक्ष में नहीं है। हम विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की जनविरोधी नीतियों और समाज में अपराध एवं अव्यवस्था को रोकने के लिए, स्वयं-नियुक्त ‘गैंगों के हमलों’ के विरूद्ध संघर्ष करने के लिए, उनका पर्दाफाश करने के लिए, उन्हें अलग- थलग करने के लिए बुनियादी तौर पर जनगण की लामबंदी पर भरोसा करते हैं, हम अपनेे पी0एल0जी0ए0 दस्तों और एक्शन टीमों को जहँा जरूरत हो, लगाते हैं। सुनील महतों की हत्या का, पूरे झारखण्ड मुक्तिमोर्चा के प्रति हमारे विरोध के रूप में अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए। जब तक वह जनविरोधी गतिविधियों में लिप्त होने से और क्रांतिकारी आंदोलन के विरूद्व हमला करने से विरत रहता है तब तक हम झारखंड मुक्तिमोर्चा के विरूद्व नहीं। निश्चय ही माओवादी ही अकेले ऐसे हैं जो अभियोक्ता (आरोप लगाने वाले) भी होंगे, जज भी होंगे और सजा पर अमल करने वाले भी।
इतना कहने के बाद गणपति ने हत्या को यह कहते हुए ठीक ठहराया कि ‘‘सुनील महतो के मामले में, हमें उसे केवल इस कारण ठिकाने लगाना पड़ा क्योंकि वह झारखंड में क्रांतिकारी आंदोलन का नृशंस दमन शुरू करने में सक्रिय रूप से शामिल था।‘‘
क्या इस स्पष्टीकरण को क्रंातिकारी स्वीकार कर सकते हैं, और क्या क्रांतिकारियों के इस स्पष्टीकरण को स्वीकार किया जा सकता है? अनेक स्थानों पर अनेक कम्युनिस्टों को क्यों मार डाला गया? लालगढ़ एवं अन्यत्र स्थानों पर सीपीआई (एम) के कार्यकर्ताओं को उनके घर से उठाकर या रास्ते में पकड़ कर क्यों मार डाला गया? क्या वे वर्ग शत्रु थे; क्या वे समाज से अपराध एवं अव्यवस्था को ठीक करने के लिए स्वयं-नियुक्त समूहों के लोग थे, पुलिस के मुखबिर थे या क्या थे? माओवादी उन्हें किस केटेगरी में रखते हैं? वे लड़ने वाले लोग थे या महज सीधे-सीधे राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी थे जिन्हें किसी इलाके पर कब्जा करने या प्रभुत्व जमाने के लिए खत्म करना जरूरी था? ऐसा कैसे है कि इस मामले मंे लालगढ़ में माओवादी, तृणमूल कांग्रेस और तथाकथित ‘‘पुलिस अत्याचार के विरूद्ध जनसमिति’’ जो माओवादियों का स्वयं का मोर्चा संगठन है- के कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर काम करते हंै?
-का. ए. बी. बर्धन
जारी
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1 comment:
आप ने बहुत मेहनत से यह लेख लिखा, बहुत सुंदर
्धन्यवाद
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