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Friday, November 27, 2009

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-3

संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य ब्रिटिश एवं फ़्रांसिसी क्रांति के फलस्वरूप, यूरोप में पश्चिमी उदारवादी प्रजातंत्र का जन्म हुआ, परन्तु इस व्यवस्था में व्यापारिक एवं वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों का दबदबा बना रहा, जिसके कारण कार्य करने वाले वर्ग अर्थात् मजदूरों एवं किसानों को सामाजिक एवं आर्थिक न्याय नहीं मिला। संयोगवश कम्पनियों एवं कारपोरेशनों को वैधानिक अधिकार दिया गया ताकि वे व्यापार आसानी से कर सकें। इसके साथ ही साथ न्यायपालिका की स्वतंत्रता की अवधारणा ने भी जन्म लिया। फैक्टरियों में 16 से 18 घण्टे तक काम लिया जाता था, बाल श्रम जोरांे पर था, अनाथालयों की दशा बड़ी दयनीय थी एवं जहाँ की स्थिति गुलामी से थोड़ी बेहतर थी, जिनका सजीव चित्रण मशहूर अंग्रेजी उपन्यासकार चाल्र्स डिकन्स ने अपनी किताबों में किया है। गुलामों एवं मजदूरों का व्यापारिक प्रतिष्ठानों के द्वारा अनियंत्रित शोषण किया जाता था। शासक वर्ग द्वारा समाजवाद के उदय के भय से एवं 19वीं शताब्दी में मजदूर संगठनों के यूरोप में उदय के कारण, फैक्टरी अधिनियम का निर्माण किया गया। कार्य के घण्टों एवं मजदूरी की दरों का निर्धारण किया गया। फैक्टरी जाँच इन्सपेक्टरों एवं मजदूर अदालतों का जन्म हुआ। आर्थिक एवं राजनैतिक हित, जो इस युग में विजयी होकर सामने आए, उनकी पूर्ति न्यायपालिका की स्वतंत्रता की संवैधानिक अवधारणा के द्वारा की गई। उस समय न्यायपालिका सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक वातावरण से पूरी तरह पृथक थी। उस समय के प्रभावशाली वर्ग के द्वारा निरन्तर एवं संगठित धार्मिक प्रचार का परिणाम यह हुआ कि लोग एक उच्च दैवीय सत्ता की लालसा करने लगे जो उन्हें समाज के अन्याय से मुक्ति दिला सके एवं समाज का पुनर्गठन कर सके। इसके फलस्वरूप बहुत सी संस्थाओं में लोगों का अंधविश्वास उत्पन्न हो गया। सितम्बर 1988 में कैलिफोर्निया के एटार्नी जनरल के पास एक शिकायत दर्ज की गई कि कैलीफोर्निया की यूनियन आयल कम्पनी का चार्टर रद्द घोषित कर दिया जाए। यह चार्टर अफगानिस्तान में अवैध कब्जे के सम्बन्ध में है। इस शिकायत को अमेरिका के 25 संगठनों के द्वारा दर्ज किया गया जिसमें नेशनल लायर्स गिल्ड आफ अमेरिका प्रमुख है। इस शिकायत में अमेरिका की राजनैतिक एवं न्यायिक संस्थानों का वर्णन निम्न प्रकार से किया गया, ‘‘जायत कारर्पोरेशन उस राज्य (अफगानिस्तान) की सरकार चलाने वाली क्रिया कलापों में लिप्त है वे एक स्वतंत्र, सम्प्रभु राष्ट्र की चुनाव प्रक्रिया, कानून निर्माण प्रक्रिया एवं न्याय प्रक्रिया को दूषित करना चाहते हैं वे धन का प्रयोग करके राजनैतिक निर्णयों को प्रभावित करते हैं, फिर भी हमारे एटार्नी जनरल एवं गवर्नर, कारपोरेट अपराधों के प्रति बहुत मृदुल रहते हैं वे इस भ्रम को बनाये रखना चाहते हैं कि जुर्माना एवं यदा कदा दण्ड से काम चल जाएगा। साथ ही साथ वे कारपोरेट ब्लैकमेल का भी शिकार हो रहे हैं जब यह कहा जाता है कि ‘‘अमित्रवत व्यापारिक वातावरण कम्पनी को राज्य (अफगानिस्तान) से बाहर निष्कासित कर देगा।’’ उपर्युक्त शिकायत अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के अनेक निर्णयों पर आधारित है जिनमें से दो हमारी परिचर्चा के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे उन कारणों पर रौशनी डालते हैं जो संयुक्त राज्य अमेरिका की आर्थिक संस्थाओं के वर्तमान पतन से सम्बंधित है। साथ ही साथ ये भी स्पष्ट करते हैं कि न्यायिक एवं राजनैतिक संस्थाएँ, उस आर्थिक धोखा धड़ी का जवाब नहीं दे पा रही हैं जिसके द्वारा आर्थिक संसाधनों को मजदूर एवं मध्यम वर्ग से छीनकर बैंकों एवं आर्थिक संस्थाओं को हस्तांतरित किया जा रहा है ताकि धनी वर्ग का देश की राजनीति में दबदबा बना रहे। स्टैण्डर्ड आॅयल आफ न्यू जेरेसी बनाम यूनाइटेड स्टेट्स नं0 221 यू0एस01 (1911) के मुकदमें में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने कारपोरेट गतिविधियों की तुलना गुलामी प्रथा से की थी। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार ‘‘सौभाग्यवश देश को मानवीय गुलामी से आजादी हासिल हो गई है जैसा कि आज सभी महसूस करते हैं परन्तु देश एक अन्य प्रकार की गुलामी की गिरफ्त में है अर्थात वह गुलामी जो धन एवं पूँजी के कुछ हाथों एवं कारपोरेशनों के हाथों में केन्द्रीय करण से उत्पन्न होती है एवं ये लोग अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए देश के सम्पूर्ण व्यापार पर कब्जा कर रहे हैं जिसमें जीवन की आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन एवं उनकी बिक्री भी शामिल है।’’ जस्टिस बै्रन्डिस ने लिगेट कम्पनी बनाम ली (नं 288 यू0एस0 517, 580) के मुकदमे में सन् 1933 में कारपोरेशनों से संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रजातंत्र एवं उसकी संस्थाओं को जो गंभीर खतरा उत्पन्न था, उस पर चिन्ता व्यक्त की। जस्टिस ब्रैण्डिस ने कहा परिवर्तन जो मजदूरों एवं सामान्य जनता के जीवन में लाए गए हैं वे इतने आधारभूत एवं सुदूरवर्ती हैं कि विद्वानों ने विवश होकर विकसित हो रही कारपोरेट संस्कृति की तुलना, सामन्तवादी प्रथा से की हैं। इन परिवर्तनों के कारण बुद्धिजीवी एवं अनुभवी व्यक्ति यह कहने पर मजबूर हो गए हैं कि न्याय पालिका धनी वर्ग के शासन के प्रति कटिबद्ध है।’’ आज संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे जजों की अधिकता है जिन्होंने कार्पोरेशनों एवं उनके हितों को सर्वोपरि रखा है। कारपोरेट निर्णय प्रक्रिया एवं कारपोरेट अपराधों ने अप्रत्याशित कानूनी स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है। परिणाम स्वरूप व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं नागरिक स्वतंत्रता की बलि दी जा रही है, चर्च एवं राज्य के पृथक्कीकरण के सिद्धांत को ताक पर रख दिया गया है, गैर कानूनी ढंग से लोगों की तलाशी ली जा रही है और उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है। एक अक्टूबर सन् 2001-2002 में सुप्रीम कोर्ट खुलने की पूर्व संध्या पर सहायक न्यायाधीश जस्टिस साॅन्ड्रा डे कोनर ने न्यूयार्क स्कूल आफँ लाॅ के ग्रीनविच विलेज कैम्पस में बोलते हुए ऐसे शब्द कहे थे जो किसी भी देश के सुप्रीम कोर्ट के कार्यरत जज के लिए अप्रत्याशित थे। उन्होंने कहा कि 11 सितम्बर के आतंकवादी हमले के बाद लोगों के प्रजातंात्रिक अधिकारों पर अप्रत्याशित ढंग से प्रतिबंध लगा दिये गए। उन्होंने आगे कहा कि यह बहुत संभव है कि हम राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बंधित आपराधिक मुकदमों के मामलों में अपने राष्ट्रीय संविधान की अपेक्षा युद्ध से सम्बंधित अन्तर्राष्ट्रीय कानून पर निर्भर करेंगे। हमारे ऊपर जो हमले हो रहे हैं उनसे विवश होकर हमें अपने आपराधिक जाँच, फोन टैपिंग एवं प्रवास से सम्बंधित कानूनों का पुनरावलोकन करना पड़ेगा। लेखिका-नीलोफर भागवत उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स अनुवादक-मोहम्मद एहरार मोबाइल - 9451969854 जारी .... loksangharsha.blogspot.com

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