Monday, November 30, 2009
लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता - अन्तिम भाग
सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात में सन् 2002 में अल्पसंख्यक समुदाय की सामूहिक हत्या एवं बलात्कार काण्ड सम्बंधी मुकदमे को गुजरात राज्य से ठीक चुनाव से पहले बाहर हस्तान्तरित कर दिया ताकि वोटरों का धु्रवीकरण हो जाए एवं यह तर्क दिया गया कि अल्पसंख्यक समुदाय को राज्य में न्याय मिलना असंभव है। यहाँ पर यह बात महत्वपूर्ण है कि राजनैतिक रूप से सक्रिय कारपोरेट घरानों एवं धनी वर्ग, जो कि यू0एस0ए0 एवं ब्रिटेन से घनिष्टता से जुड़े हुए हैं के मुख्यालय महाराष्ट्र एवं गुजरात में हैं। यह भी बात महत्वपूर्ण है कि कर्नाटक राज्य जिसमें कि अभी जल्दी ही कारपोरेट घरानों एवं मल्टीनेशनल कम्पनियों का आधिपत्य हुआ है, में फासीवादी राजनैतिक दलों एवं संगठनों का तेजी से उदय हुआ है। कर्नाटक में स्त्रियों, अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों, ईसाई मिशनरियों, एवं मुसलमानों पर आक्रमण में बढ़ोत्तरी हुई है। आश्चर्य की बात यह है कि इन हमलों की कोई गंभीर जाँच नही की गई है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा से भरे भाषण भारत में दैनिक चर्चा का विषय बन चुके हैं। न तो ऐसे मामलों की जाँच की जाती है और न ही उन पर मुकदमा चलाया जाता है, अगरचे ऐसा भाषण उच्च पुलिस अधिकारियों जैसे स्व0 हेमन्त करकरे के खिलाफ ही क्यों न हो। हेमन्त करकरे ने, जो मुम्बई के संयुक्त पुलिस आयुक्त थे, ऐसे फासीवादी राजनैतिक दलों एवं संगठनों के खिलाफ धर्मयुद्ध शुरू कर रखा था। उनको 26 नवम्बर 2008 में शिवसेना के प्रमुख अखबार ‘सामना’ के माध्यम से गंभीर परिणाम की धमकी दी गई एवं उसी दिन उनकी हत्या कर दी गई जब मुम्बई पर कुख्यात हमला किया गया। इस हमले में अनेक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एवं विदेशी मारे गए। आज तक इस हमले का उद्देश्य रहस्य में लिपटा हुआ है।
उड़ीसा, झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ में जहाँ कि आदिवासियों की एक बड़ी संख्या मौजूद हैं, ईसाइयों, दलितों, आदिवासियों एवं गरीबों पर हमलों में पिछले दो दशकों मंे काफी वृद्धि हुई है क्योंकि ये लोग अपनी जम़ीन पर अवैध कब्जों का विरोध कर रहे थे जो भारतीय कारपोरेट घरानों एवं मल्टी नेशनल कम्पनियों द्वारा उस क्षेत्र में खनिज खुदाई के नाम पर बिना वैकल्पिक व्यवस्था किए हुए, हड़पी जा रही थी। ये लोग ‘फूट डालो एवं राज्य करो’’ की नीति का अनुसरण कर रहे हैं।
1991 के पश्चात सुप्रीम कोर्ट के द्वारा यह फैसला लिया गया कि ‘जनहित के नाम’ पर याचिकाओं में सरकार की आर्थिक नीति के मामलों में उच्च अदालतें पुनरावलोकन नहीं करंेगी क्योंकि इसका सम्बन्ध कार्यपालिका की नीति निर्धारण से है। जबकि सच्चाई यह है कि भारतीय संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को असीम पुनरावलोकन की शक्तियाँ प्रदान की हैं। काम्पट्रोलर एवं आडीटर जनरल आफ, इण्डिया (कैग) जो एक संवैधानिक संस्था है, ने कार्यपालिका के उन अधिकारियों को दोषी ठहराया है जिन्होंने सरकारी संस्थानों का निजीकरण किया। कैग ने निर्णय दिया कि सरकारी क्षेत्र के उद्यमों के मूल्य का आकलन उचित प्रकार से नहीं किया गया एवं उनका निजीकरण उनकी कीमत से कहीं कम दर पर किया गया जिसके कारण राजकोष को हानि उठानी पड़ी। भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने बालको इम्पलाइज यूनियन बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए0आई0आर0 2002 एस0सी0 350) मुकदमे में पब्लिक सेक्टर कम्पनी के निजीकरण के मामले में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया, यद्यपि जिन आधारों पर हस्तक्षेप की माँग की जा रही थी, उनमें एक आधार यह भी था कि पब्लिक सेक्टर कम्पनी की सम्पदा का आकलन निजीकरण करने के लिए गलत ढंग से किया गया एवं आरक्षित मूल्य को मनमाने ढंग से निर्धारित किया गया। सी0आई0टी0यू0 बनाम महाराष्ट्र राज्य मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने एक मुख्य टेªड यूनियन की उस याचिका को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया जिसमें इनरान कम्पनी के प्रोजेक्ट को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह प्रोजेक्ट राज्य बिजली बोर्ड की अर्थ व्यवस्था के लिए अहितकारी है एवं यह प्रोजेक्ट भारतीय बिजली अधिनियम के विपरीत है। सेन्टर फार पब्लिक इन्टरेस्ट लिटीगेशन बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए0आई0आर0 2008 एस0सी0 606) मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने, एक सार्वजनिक उपक्रम आयल एण्ड नेचुरल गैस कमीशन (ओ0एन0जी0सी0) द्वारा एक प्राइवेट कम्पनी रिलायन्स को आफशोर गैस एवं आॅयल कुओं की बिक्री, में जाँच करने से इन्कार कर दिया। इस याचिका में उक्त बिक्री में भ्रष्टाचार की शिकायत की गई थी तथा सबूत पेश किए गए थे जिसमें सी0बी0आई0 के एक अधिकारी की टिप्पणी भी थी कि इस मामले में अपराधिक मुकदमा दायर किया जाए।
नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के फलस्वरूप कार्य के स्थायित्व की कानूनी अवधारणा को नुकसान पहुँचा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस सम्बंध में अपने पहले के कई निर्णयों को बदला है। साथ ही साथ ‘कान्टैªक्ट लेबर एक्ट 1970 (नियमितीकरण एवं उन्मूलन) की भी खिलाफवर्जी की है। इस कानून के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई थी कि कार्य विशेष के लिए समझौते के आधार पर श्रम को समाप्त किया गया है एवं यदि कार्य की प्रकृति स्थाई है तथा कार्य करने वाला इस सम्बन्ध में आवेदन पत्र भी देता है तो कार्य करने वाले को स्थायी आधार पर सेवा दी जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने 2001 में स्टील अर्थारिटी आॅफ इण्डिया लिमिटेड बनाम नेशनल यूनियन वाटर, फ्रन्ट वर्कर्स (ए0आई0आर0 एस0सी0 527) मुकदमे में फैसला दिया कि समझौता पर आधारित श्रम अब समाप्त हो चुका है एवं कार्य की प्रकृति भी स्थायी है तथापि वर्तमान समझौते पर रखे गए मजदूरों को स्थाईं तौर पर नौकरी दिए जाने का कोई कानूनी अधिकार प्राप्त नहीं है। इस फैसले से हजारों मजदूरों के लिए जो सेवा में स्थायित्व चाहते थे, कोर्ट का दरवाजा बन्द हो गया है।
भारतीय सुप्रीम कोर्ट के द्वारा डा0 विनायक सेन को 2007 में जमानत पर रिहा न करने के फैसले की काफी आलोचना की गई है। 22 नोबल पुरस्कार विजेताओं ने उनको रिहा करने की अपील की थी। डा0 विनायक सेन, पीपुल्स यूनियन फाॅर सिविल लिबर्टी के उपाध्यक्ष हैं। साथ ही साथ वह प्रसिद्ध समाजसेवी तथा बच्चों के मशहूर डाक्टर हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य में गरीब आदिवासियों के उत्थान के लिए काफी कार्य किया है। वे पिछले 20 महीनों से जेल में सड़ रहे हैं। डा0 विनायक सेन को अनिश्चित काल के लिए इसलिए जेल में डाला गया क्योंकि उन्होंने ‘सलवा’ जुडूम का विरोध किया था। सलवा जुडूम एक राज्य पोषित सशस्त्र संगठन है जिसको छत्तीसगढ़ राज्य में उन राजनैतिक आन्दोलन कारियों एवं लोगों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए सरकार द्वारा खुली छूट दे दी गई हैं जो भारतीय कारपोरेट कम्पनियों एवं मल्टीनेशनल कम्पनियों के द्वारा जमीन एवं संशाधनों पर कब्जे का प्रबल विरोध कर रहे हैं। हजारों आदिवासियों को पैरामिलिट्री सेनाओं के द्वारा छोटे-छोटे गाँवों में बन्दी बना दिया गया है। नागरिकों द्वारा गठित की गई जाँच समितियों ने फैसला दिया है कि डा0 विनायक जेल अधिकारियों की पूर्व अनुमति से जेल के अन्दर वृद्ध माओवादी कैदी को चिकित्सीय सहायता देने के लिए गए थे। इसी कारण उनको छत्तीसगढ़ स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट 2005 एवं अवैध गतिविधियाँ (रोकथाम) एक्ट 1967 के तहत गिरफ्तार किया गया। उन पर यह आरोप लगाया गया कि वे गुप्त दस्तावेज ले जाने का कार्य करते हैं। इस राक्षसी कानून के अन्तर्गत 1000-से ऊपर राजनैतिक कैदी राज्य की विभिन्न जेलोें में विगत कई वर्षों से सड़ रहे हैं। डा0 विनायक सेन जो हृदय रोग के गंभीर मरीज हैं, उनको आवश्यक चिकित्सीय सुविधा नहीं पहुँचाई गई। अदालत ने अभी जल्दी ही ये आदेश दिया है कि कैदी की मेडिकल रिपोर्ट प्राप्त की जाए एवं उन्हें आवश्यक चिकित्सीय सहायता उपलब्ध कराई जाए। (डा0 विनायक सेन को इस लेख के लिखने के दो महीने के बाद मई 2009 में अन्ततोगत्वा रिहा कर दिया गया।)
20 जनवरी 2005 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने पूरे हिन्दुस्तान की टेªड यूनियनों के पदाधिकारियों एवं सदस्यों को आश्चर्य में डाल दिया। सुप्रीम कोर्ट ने, एक विशेष अनुमति याचिका जिसको सी0बी0आई0, मध्य प्रदेश राज्य, एवं छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा आदि ने दायर किया था, पाँच मुख्य षड़यंत्रकारियों को रिहा कर दिया जिन पर टेªड यूनियन लीडर गुहानियोगी की हत्या का आरोप था। इन पाँचों में दो उद्योगपति, ओसवाल आॅयल एण्ड स्टील प्राइवेट लिमिटेड के मालिक चन्द्रकान्त शाह तथा सिम्पलेक्स इण्डस्ट्रीज के मालिक, मूलचन्द भी थे। सुप्रीम कोर्ट ने छठे व्यक्ति अर्थात जिस व्यक्ति को गुहा नियोगी को मारने की सुपारी दी गई थी, को उम्रकैद की सजा सुनाई। इसके पूर्व दुर्ग की सेशन कोर्ट ने पाँच अभियुक्तों जिसमें दो उद्योगपति शामिल थे उम्र कैद की सजा दी थी तथा छठे को जिसने सुपारी ली थी मौत की सजा सुनाई थी। गुहा नियोगी, जो मशहूर ट्रेड यूनियन नेता थे, को 25 सितम्बर 1991 को पत्तन मल्लाह, जो भाड़े का कातिल था, जिसके साथ गुहा की कोई शत्रुता न थी, के द्वारा निर्ममता से हत्या कर दी गई थी। सेशन्स कोर्ट के मुकदमें के दौरान सरकारी वकील ने यह आरोप लगाया था कि भिलाई के दो अग्रणी उद्योगपतियों ने शंकर गुहा नियोगी की हत्या करवाई क्योंकि नियोगी मजदूरों को संगठित कर रहा था और उनसे टेªड यूनियनें बनवा रहा था। जिसके कारण मजदूरों से सम्बंधित बहुत से कानून उस क्षेत्र में लागू करने पड़ रहे थे। इसके पूर्व, हाईकोर्ट ने सेशन्स कोर्ट के फैसले को उलटते हुए सभी 6 अभियुक्तों को रिहा कर दिया था।
उपर्युक्त न्यायिक निर्णयों का अध्ययन करने पर यह बात स्पष्ट रूप से जाहिर हो रही है कि न्यायालय की स्वतंत्रता तो सैद्धांतिक रूप से मौजूद है परन्तु वास्तव में न्यायालय दुनिया के दो बड़े प्रजातंत्रों एवं अन्य में स्वतंत्र नहीं हैं। संसार में बहुत से परिवर्तन हो रहे हैं। पुरानी प्रजातांत्रिक व्यवस्था, अपने सामाजिक एवं आर्थिक महत्व एवं उपयोगिता को खो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव, ‘‘बानकी मून’’ ने वर्तमान राजनैतिक एवं आर्थिक संस्थाओं की निरर्थकता को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित टिप्पणी की है क्योंकि ये संस्थाएँ आर्थिक एवं राजनैतिक संकट का सामना नही कर पा रही हैः-
‘‘हमने परिवर्तन की भयानकता को देखा है, मुझे डर है कि अभी हालात इससे भी खराब आने हैं। एक ऐसा राजनैतिक तूफान आएगा, जिससे समाज में अव्यवस्था बढ़ेगी, सरकारें और निर्बल होंगी एवं जनता और क्रुद्ध होगी-ऐसी जनता जिसने अपने नेताओं और स्वयं अपने भविष्य में विश्वास को खो दिया होगा।’’
लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स
अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854
अन्तिम भाग
( समाप्त )
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Sunday, November 29, 2009
लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-5
संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य
रैण्डल बनाम विलियम एच साॅरेल 548 यू0एस0 230 (2006) मुकदमें में सुप्रीम कोर्ट ने छः भिन्न विचार व्यक्त किए उनमें से तीन जजों ने बहुमत राय से अभियान खर्चे की सीमाओं को समाप्त कर दिया एवं यह विचार व्यक्त किया कि खर्च पर कोई सीमा निर्धारित करना असंवैधानिक है। इस निर्णय से उन प्राइवेट कम्पनियों को काफी फायदा पहुँचा जो खुले तौर से राजनैतिक पदों की लालसा करती थीं।
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता को बचाने में बुरी तरह से असफल रहा है। जार्ज डब्लू बुश बनाम अलवर्ट गोरे जू0 531 यू0 एस0 98 (2008) के मुकदमें में यह बात साबित हो गईं। 5-4 जजों ने बहुमत से यह निर्णय दिया कि फ्लोरिडा में वोटों की गिनती रोक दी जाय। यह भी निर्णय में कहा गया कि ‘‘व्यक्तिगत वोटर को यू0एस0ए0 के राष्ट्रपति के चुनाव में वोट देने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है, जब तक कि राज्य की विधायिका निर्णय न दे।’’ जस्टिस जाॅन पाल स्टीवेन्स ने इस निर्णय से असहमति व्यक्त की एवं फैसला दिया कि ‘‘बहुमत निर्णय ने असंख्य वोटरों को वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया। यद्यपि हमें कभी निश्चित रुप से यह पता नहीं चल सकता है कि इस वर्ष राष्ट्रपति के चुनाव में वास्तविक विजेता कौन है। लेकिन एक बात पूर्णतया स्पष्ट है कि वास्तविक पराजय किसको मिली। वास्तविक हार राष्ट्र के उस विश्वास की हुईं जो जज को कानून के संरक्षक के रूप में देखती थी।’’
भारत वर्ष में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए निर्णयों में, जो 1950 से 1989 के मध्य दिए हैं एवं उन निर्णयों में जो 1990 से 2008 के मध्य दिए गए हैं, स्पष्ट अन्तर हैं क्योंकि राजनैतिक वातावरण आर्थिक नीतियों से काफी प्रभावित हुआ। मल्टी नेशनल कम्पनियाँ वजूद में आईं। प्रबल भारतीय बिजनेस घराने पहले से ही राजनैतिक शक्ति के साथ मौजूद थे। 1950 से 1989 के मध्य सम्पत्ति के अधिकार के क्षेत्र में त्रुटिपूर्ण निर्णय दिए गए जिसके कारण पचास तथा साठ के दशक में भूमि सुधार कानूनों में अवरोध उत्पन्न हुआ तथा सामन्त वादियों एवं पूँजीपतियों को फायदा पहुँचा। सत्तर के दशक के मध्य सुप्रीम कोर्ट ने 1975 में राजनैतिक इमरजेन्सी के दौरान बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं के निलम्बन को उचित ठहराया, जिसके कारण जनता में सुप्रीम कोर्ट की काफी आलोचना हुई एवं बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए माफी भी माँगी। निर्णय के प्रभाव को संसद के द्वारा संविधान में संशोधन करके समाप्त किया गया। बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं का निलंबन अस्थाई रहा क्योंकि 1977 में चुनाव कराए गए। सामान्य तौर से किसी भी शैक्षिक एवं राजनैतिक परिचर्चा में जिस चीज की उपेक्षा की जाती है वह यह कि 1977 के पश्चात, भारत के कई हिस्सों में अधिक तानाशाही की परिास्थतियाँ मौजूद हैं। तथाकथित आतंकवाद विरोधी कानून इसका प्रमाण है। अनके फर्जी इनकाउन्टर इसके आवरण में कराए जाते हैं। न्यायिक-समाज अथवा बुद्धिजीवियों के द्वारा इस पर कोई विचार विमर्श नहीं किया जाता है क्योंकि जो लोग इन कानूनों से प्रभावित हैं वे या तो सामान्य (मज़दूर) लोग हैं या निम्न मध्यम वर्ग के लोग हैं।
1990 के पश्चात, भारत का सर्वोच्च न्यायालय कारपोरेट घरानों के आक्रमण के प्रभाव से अपने आप को नहीं बचा सका। यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया एवं अन्य (ए0आई0आर0 1990 सुप्रीम कोर्ट 273) भोपाल गैस काण्ड मुकदमे में यह पूर्णतया दृष्टिगोचर है। यूनियन कार्बाइड की लापरवाही के कारण दो-तीन दिसम्बर 1984 को मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का रिसाव हुआ, जो बहुत ही जहरीली गैस है। इस रिसाव के फलस्वरूप औद्योगिक एवं वातावरण सम्बंधी बहुत ही गंभीर दुर्घटना हुई जिसमें हजारों लोग मारे गए। इस मामले में यूनियन कार्बाइड, भारत सरकार से अपनी शर्तों को मनवानी चाहती थी। सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन कार्बाइड की शर्तों को जल्दबाजी में स्वीकार कर लिया। इन शर्तों के तहत यूनियन कार्बाइड को, विश्व के सबसे भयानक वातावरण सम्बंधी (गैस) दुर्घटनाओं में से एक में बहुत ही कम क्षति पूर्ति करनी थी। यह क्षतिपूर्ति यू0एस0ए0 में की जाने वाली तुलनात्मक क्षतिपूर्ति के मुकाबले में बहुत कम थी। साथ ही साथ भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार के उस अधिकार का भी सौदा कर दिया जिसके द्वारा यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों पर आपराधिक उपेक्षा एवं हत्या का मुकदमा चलाया जाता। भोपाल गैस काण्ड में लगभग तीन हजार लोग मारे गए, 60 हजार लोग गम्भीर रूप से घायल हुए तथा लगभग 2 लाख लोग स्थायी रूप से प्रभावित हुए। हजारों जानवर मारे गए। फसलंे नष्ट र्हुइं, व्यापार एवं वाणिज्य बाधित हुआ। सुप्रीम कोर्ट के उपर्युक्त निर्णय को पुनरावलोकित किया गया, क्योंकि पुनरावलोकन याचिकाएँ दायर की र्गइं एवं जनता में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की काफी आलोचना की गई। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इस याचिका का निस्तारण प्रभावित लोगों के संतोष तक कभी नहीं किया गया। यूनियन कार्बाइड ने भारत मंे विभिन्न स्तरों पर अधिकारियों को प्रभावित किया। इसका प्रमुख वारेन एण्डरसन जमानत के दौरान फरार हो गया। 5 जजांे वाली सुप्रीम कोर्ट की बेन्च ने यह फैसला दिया कि शर्तें सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इसलिए निर्धारित की गईं क्योंकि सम्बंधित पक्ष इस पर सहमत हुए एवं भारत में उपचार प्राप्त करने में विलम्ब हुई। इसी घटना के साथ एक अन्य घटना यह हुई कि अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में एक मशहूर भारतीय न्यायाधीश डा0 नगेन्द्र सिंह की मृत्यु के कारण वह सीट रिक्त हो गई थी। उनके स्थान पर एक दूसरे भारतीय के चुनाव के लिए उस देश का वोट आवश्यक था। जहँा पर यूनियन कार्बाइड का मुख्यालय था।
1991 के पश्चात, राजनैतिक रूप से शक्तिशाली भारतीय कम्पनियों के द्वारा फूट डालने वाला एक कार्यक्रम अपनाया गया। इस कार्यक्रम में मल्टी नेशनल कम्पनियों एवं बैंकों ने फासीवादी पार्टियों जैसे भारतीय जनता पार्टी, शिव सेना, महाराष्ट्र नव निर्माण सेना आदि पार्टियों का प्रयोग खुले तौर पर किया। यह कार्य मुम्बई तथा अन्य स्थानों पर भिन्न नामों से इसलिए किया गया ताकि जनता का ध्यान उन हानिप्रद आर्थिक नीतियों से हटाया जा सके जो वे कम्पनियाँ यहाँ सरकार की मदद से लागू कर रही थीं। इन कम्पनियों ने इन फासीवादी पार्टियों की मदद से धर्म की दुहाई शुरू की एवं मुस्लिम एवं अन्य अल्पसंख्यक लोगों को राक्षस बनाकर पेश किया ताकि लोगों के ध्यान को आर्थिक नीतियों से हटाया जा सके। इसी समय सुप्रीम कोर्ट के 3 जजों की बेन्च ने मनोहर जोशी बनाम नितिन भाउराव पाटिल (ए0आई0आर0 1996 एस0सी0 796) मुकदमे में मुम्बई हाईकोर्ट के उस फैसले को उलट दिया जिसमें शिवसेना प्रत्याशी को लोक प्रतिनिधि अधिनियम 1951 के अन्तर्गत साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने वाला भाषण देने के लिए चुनाव लड़ने हेतु अयोग्य घोषित किया गया था। शिवसेना प्रत्याशी ने आम सभा में घोषणा की थी कि यदि उनकी पार्टी विजयी हुई तो महाराष्ट्र को प्रथम हिन्दू राज्य घोषित किया जाएगा। यही प्रत्याशी जीतने के बाद भारतीय जनता पार्टी एवं शिवसेना के द्वारा मुख्यमंत्री चुना गया। इसके पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने केसवन भारती बनाम स्टेट आफ केरल मुकदमे में सात जजों के बहुमत ने यह फैसला दिया था कि धर्म निरपेक्षता भारतीय संविधान की मूल भावना है। जिसको न तो परिवर्तित किया जा सकता है और न ही रद्द किया जा सकता है। किसी ऐसे मामले में जिसका सम्बन्ध चुनाव में धर्म के आधार पर अपील करने जैसी भ्रष्ट क्रियाओं से हो।
भारत की न्यायिक एवं कानूनी व्यवस्था निर्दोष नागरिकों की सामूहिक हत्या एवं अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की हत्याओं के सम्बन्ध में पूरी तरह से कार्य करने में सक्षम सिद्ध नहीं हुई है। फासीवादी, राजनैतिक दलों ने, जिनकी पुश्तपनाही कारपोरेट घरानों, एवं धनी वर्ग के द्वारा की जाती है, अनेक जघन्य कार्य अंजाम दिए हैं ताकि वे लोगों के ध्यान को भारत की अर्थव्यवस्था पर कारपोरेट घरानों के कन्ट्रोल से हटा सकंे। यद्यपि इन कारपोरेट घरानों के मुख्य सदस्यों को, जाँच आयोगों द्वारा जिनकी अध्यक्षता हाईकोर्ट के कार्यरत जज करते हैं, दोषी पाया गया है। पहले तो इन मामलों में शिकायत दर्ज नहीं की जाती है और यदि दर्ज कर ली गई तो उसकी जाँच पड़ताल नहीं की जाती है एवं अन्ततोगत्वा फाइल को बन्द कर दिया जाता है। दिसम्बर 1992 एवं जनवरी 1993 में मुम्बई (महाराष्ट्र राज्य) में हुई सामूहिक हत्या के मामलों में किसी को दोषी नहीं ठहराया गया है। इन साम्प्रदायिक हमलों में 2000 से अधिक लोग मारे गए, सैकड़ों लोग लापता हो गए, तथा पुलिस सैकड़ों मामलों में केवल ऊपर के आदेश का पालन करती हुई मूक दर्शक बनी रही। इसके विपरीत, 1993 के मुम्बई विस्फोट घटनाओं के मुकदमों के मामले में, जिसके मुख्य अभियुक्त, अन्डरवल्र्ड के खरीदे हुए सदस्य थे, उनको बचने का मौका दिया गया। इन विस्फोटो में सभी धर्मों के लोग मारे गए थे।
लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स
अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854
जारी ....
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Saturday, November 28, 2009
लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-4
संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य
आश्चर्यजनक रूप से सुप्रीम कोर्ट का एक कार्यरत जज इस बात पर जोर दे रहा था कि व्यक्तिगत अधिकार तथाकथित राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों के कारण दबा दिए जाएँगे। 9/11 की आतंकवादी घटना से सम्बंधित बहुत से ऐसे प्रश्न हैं जिनका जवाब अभी प्राप्त नहीं हुआ है तथा उनमें ऐसे प्रश्न भी हैं जिनको तकनीकी एवं इन्जीनियरिंग विशेषज्ञों ने उठाया है। वास्तविकता यह है कि आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का तात्पर्य मुख्य आर्थिक संस्थाओं एवं घरानों के द्वारा युद्ध है जो संयुक्त राज्य अमेरिका में इस गूढ़ आर्थिक एवं राजनैतिक संकट के समय में राजनैतिक विरोध को दबाने के लिए किया जा रहा हैं
कुछ महत्वपूर्ण मुकदमों के अध्ययन से जो कि 1990 या उसके आसपास हुए हैं, यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगी कि संयुक्त राज्य अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट एवं भारत के सुप्रीम कोर्ट दोनों मंे कौन ज्यादा स्वतंत्र है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के उपराष्ट्रपति डिक चेनी बनाम संयुक्त राज्य अमेरिका, जिला न्यायालय (कोलम्बिया) संख्या 4-475 दिनांक 18 मार्च 2004 के मुकदमें में न्यायाधीश जस्टिस अन्टोनिन स्कालिया ने सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही के दौरान अपने आपको डिक चेनी से व्यक्तिगत सम्बंध न रखने से इनकार कर दिया। अमेरिका बार एसोसिएशन की आदर्श आचार संहिता के अनुसार ‘‘जजों को सभी प्रकार के अनुचित व्यवहार से अपने आप को बचाना है।’’ जस्टिस स्कालिया का उपराष्ट्रपति चेनी के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध, मुकदमे के चलते रहने के दौरान पूरी तरह अनुचित था। डिक चेनी उस समय बुश नेशनल एनर्जी पालिसी डेवलेपमेन्ट ग्रुप के चेयरमैन थे। जिस पर फेडरल एडवाइजरी के कानून तोड़ने का आरेाप था। इस कानून के अनुसार नेशनल एनर्जी पालिसी डेवलेपमेन्ट ग्रुप को अपनी कार्यवाही को जनता के समक्ष पेश करना था क्योंकि यह ग्रुप पूरी तरह से सरकारी अधिकारियों से बना था। इस ग्रुप में इनरान कम्पनी के सी0ई0ओ0, स्व0 केनेथ ले भी शामिल थे। जस्टिस स्कालिया के द्वारा अपने आप को कार्यवाही के दौरान डिक चेनी से सम्बंध न रखने से इन्कार करना न्यायिक स्तर के पतन की ओर इशारा करता है।
प्रजातंत्र के आवरण के पीछे संयुक्त राज्य अमेरिका में पुलिस राज्य है। यह इस बात से स्पष्ट है जिसमें ‘‘शत्रु लड़ाकू’’ के नाम पर हजारों बेगुनाह नागरिकों को ग्वान्टानामों बे एवं दूसरी जेलों में पिछले छः वर्षों से बिना मुकदमा चलाए कैद रखा जा रहा है। हमदी बनाम रम्ज़फील्ड नं0 542, यू0एस0 507, सन 2004 के मुकदमें के फैसले में यह बात स्वीकार की गई कि व्यक्ति को बन्दी प्रत्यक्षीकरण का अधिकार है। यह भी निर्णय दिया गया कि संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति को ‘‘आतंकवाद के खिलाफ’’ युद्ध में असीमित शक्तियाँ प्राप्त हैं जिसके तहत लोगों को बन्दी बनाया जा सकता है, बिना मुकदमा चलाए केवल शक के आधार पर जेलों में डाला जा सकता है। जस्टिस साॅण्ड्रा ओ कोनर ने सैद्धांतिक रूप से यह स्वीकार किया कि न्यायालय को गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों के सम्बन्ध में न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार हैं इस निर्णय का प्रभाव यह पड़ा कि निर्दोषता की अवधारणा के सिद्धांत का परित्याग कर दिया गया एवं ‘सबूत का बोझ’ अभियोग लगाए गए व्यक्ति पर हस्तांतरित कर दिया गया कि वह साबित करे कि वह ‘शत्रु लड़ाकू’ नहीं है। सरकार का यह अधिकार कि वह ‘फर्जी सबूत पेश करे’ बना रहा एवं मिलिट्री कोर्ट के समक्ष सुनवाई को पर्याप्त माना गया।
रसूल बनाम जार्ज बुश नं0 542 यू0एस0 466 सन् 2004 के मुकदमें में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि ग्वान्टानामों कैदी, कान्ग्रेसनल हैबीस कारपस एक्ट 1863 के तहत, बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका को दायर कर सकते हैं। इसको रोकने के लिए संसद ने डिटेनी ट्रीटमेन्ट एक्ट 2005 पारित किया एवं कम्बैट स्टेट रिब्यू ट्रिब्यूनल स्थापित किए गए, वास्तव में ’रिब्यू ट्रिव्यूनल’ कंगारु अदालतंे यानी फर्जी अदालतें थीं जिसमें ‘वकील एवं सबूत’ को कोई स्थान नही दिया गया।
सन् 2006 में हमदान बनाम रम्ज़ फील्ड नं0 548 यू0एस0 मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि ‘डिटेनी ट्रीटमेन्ट एक्ट’ उन लोगों पर लागू नहीं होगा जिन्होंने बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएँ पहले से दायर कर रखी हैं। इस सुविधा को समाप्त करने के लिए मिलिट्री कमीशन एक्ट 2006 पारित किया गया ताकि ग्वान्टानामो के कैदियों की सभी बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं को खारिज किया जा सके।
अन्ततोगत्वा सन् 2008 में लखदर बूमीडीन बनाम जार्ज बुश नं0 553 यू0एस0 2008 मुकदमे में संयुक्त राज्य अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने अन्तर्राष्ट्रीय विरोध के फलस्वरूप, ग्वान्टानामो एवं दूसरे स्थान की जेलों में कैदियों पर जो अत्याचार हो रहा था, एवं जिन्हें अकारण बिना मुकदमा चलाये छः साल जेलों में बन्द किया जा रहा था, यह निर्णय दिया कि ‘शत्रु लड़ाकू’ व्यक्तियों को बन्दी प्रत्यक्षीकरण की याचिका को दाखिल करने का अधिकार प्राप्त है। तथापि कार्यपालिका के उस अधिकार को चुनौती नहीं दी गई, जिसके अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति को शत्रु लड़ाकू घोषित कर दिया जाता था। अन्य अधिग्रहीत देशों की जेलों के कैदियों को जिन्हें अवैध रूप से बन्द किया गया था, इस आदेश से कोई राहत नहीं मिली। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि लाखों लोग जो मारे गए एवं अधिग्रहीत देशों में ‘‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ के नाम पर जिन लोगों को शरणार्थी बनाया गया, उनमें से लगभग 90 प्रतिशत लोग आम नागरिक थे। संयुक्त राज्य अमेरिका एवं यू0के0 की सरकारों ने ‘जेनेवा कन्वेन्शन की धज्जियाँ उड़ा दी हैं।
प्रथम दृष्टया, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक एवं कारपोरेट फ्राड (धोखाधड़ी) के फलस्वरूप अपने आप को पूरी तरह से अकर्मण्य साबित कर दिया है। फाइनेन्सियल डिस्क्लोजर रिपोर्ट 2001 के अनुसार अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के अधिकतर जज 9 में से 5 जज करोड़पति हैं। यदि उनके व्यक्तिगत निवास स्थानों की भी कीमत लगा दी जाए तो सभी 9 के 9 जज करोड़पति हैं। उनकी विचार धारा वही है जो वाॅल स्ट्रीट की है। इन्हीं जजों ने उस याचिका को खारिज कर दिया था जो वाॅल स्ट्रीट बैंकर्स के खिलाफ पेंशन एवं निवेश से सम्बंधित थी। इन बैंकों में मेरिल लिंच, क्रेडिट सुइस ग्रुप, एवं बार्क ले बैंक शामिल थे। इन बैंकों ने इनरान कम्पनी के अधिकारियों के ऋण को रेब्न्यू (आमदनी) के रूप में पेश करके दिखाया।
रीजेन्टस आॅफ यूनीवर्सिटी आॅफ केलीफोर्निया बनाम मेरिल लिन्च 2008 डब्लू0एल0 169504 (यू0 एस 2008) के मुकदमे में यह निर्णय दिया गया। इसका सम्बन्ध उस वृहत वित्तीय फ्राड से था जो होस्टन ऊर्जा जायन्ट, इनरान कम्पनी ने किया। यह निर्णय उस निर्णय के बाद आया जो स्टोनरिज इनवेस्टमेन्ट पार्टनर्स एल0एल0सी0 बनाम साइंटिफिक अटलांटा इंक 552 यू0सं0 2008 के मुकदमे में दिया गया था। जिसमें जस्ट्सि एण्टोनी केनेडी ने बहुमत से यह-निर्णय दिया था कि ‘‘ऐसी कम्पनियों को इन्वेस्टमेंट फ्राड के लिए उत्तरदायी ठहराना वाॅल स्ट्रीट के लिए बुरा सिद्ध हो सकता है एवं हमारे कानून के अन्तर्गत एक सार्वजनिक व्यापारिक कम्पनी होने की महंगी कीमत चुकानी पड़ सकती है।’’ उपयुकर््त निर्णय अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के उन तमाम निर्णयों में से एक था जिसको व्यापारिक संस्थानों के पक्ष में दिया गया।
लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स
अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854
जारी ....
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Friday, November 27, 2009
लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-3
संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य
ब्रिटिश एवं फ़्रांसिसी क्रांति के फलस्वरूप, यूरोप में पश्चिमी उदारवादी प्रजातंत्र का जन्म हुआ, परन्तु इस व्यवस्था में व्यापारिक एवं वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों का दबदबा बना रहा, जिसके कारण कार्य करने वाले वर्ग अर्थात् मजदूरों एवं किसानों को सामाजिक एवं आर्थिक न्याय नहीं मिला। संयोगवश कम्पनियों एवं कारपोरेशनों को वैधानिक अधिकार दिया गया ताकि वे व्यापार आसानी से कर सकें। इसके साथ ही साथ न्यायपालिका की स्वतंत्रता की अवधारणा ने भी जन्म लिया। फैक्टरियों में 16 से 18 घण्टे तक काम लिया जाता था, बाल श्रम जोरांे पर था, अनाथालयों की दशा बड़ी दयनीय थी एवं जहाँ की स्थिति गुलामी से थोड़ी बेहतर थी, जिनका सजीव चित्रण मशहूर अंग्रेजी उपन्यासकार चाल्र्स डिकन्स ने अपनी किताबों में किया है। गुलामों एवं मजदूरों का व्यापारिक प्रतिष्ठानों के द्वारा अनियंत्रित शोषण किया जाता था। शासक वर्ग द्वारा समाजवाद के उदय के भय से एवं 19वीं शताब्दी में मजदूर संगठनों के यूरोप में उदय के कारण, फैक्टरी अधिनियम का निर्माण किया गया। कार्य के घण्टों एवं मजदूरी की दरों का निर्धारण किया गया। फैक्टरी जाँच इन्सपेक्टरों एवं मजदूर अदालतों का जन्म हुआ।
आर्थिक एवं राजनैतिक हित, जो इस युग में विजयी होकर सामने आए, उनकी पूर्ति न्यायपालिका की स्वतंत्रता की संवैधानिक अवधारणा के द्वारा की गई। उस समय न्यायपालिका सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक वातावरण से पूरी तरह पृथक थी। उस समय के प्रभावशाली वर्ग के द्वारा निरन्तर एवं संगठित धार्मिक प्रचार का परिणाम यह हुआ कि लोग एक उच्च दैवीय सत्ता की लालसा करने लगे जो उन्हें समाज के अन्याय से मुक्ति दिला सके एवं समाज का पुनर्गठन कर सके। इसके फलस्वरूप बहुत सी संस्थाओं में लोगों का अंधविश्वास उत्पन्न हो गया।
सितम्बर 1988 में कैलिफोर्निया के एटार्नी जनरल के पास एक शिकायत दर्ज की गई कि कैलीफोर्निया की यूनियन आयल कम्पनी का चार्टर रद्द घोषित कर दिया जाए। यह चार्टर अफगानिस्तान में अवैध कब्जे के सम्बन्ध में है। इस शिकायत को अमेरिका के 25 संगठनों के द्वारा दर्ज किया गया जिसमें नेशनल लायर्स गिल्ड आफ अमेरिका प्रमुख है। इस शिकायत में अमेरिका की राजनैतिक एवं न्यायिक संस्थानों का वर्णन निम्न प्रकार से किया गया, ‘‘जायत कारर्पोरेशन उस राज्य (अफगानिस्तान) की सरकार चलाने वाली क्रिया कलापों में लिप्त है वे एक स्वतंत्र, सम्प्रभु राष्ट्र की चुनाव प्रक्रिया, कानून निर्माण प्रक्रिया एवं न्याय प्रक्रिया को दूषित करना चाहते हैं वे धन का प्रयोग करके राजनैतिक निर्णयों को प्रभावित करते हैं, फिर भी हमारे एटार्नी जनरल एवं गवर्नर, कारपोरेट अपराधों के प्रति बहुत मृदुल रहते हैं वे इस भ्रम को बनाये रखना चाहते हैं कि जुर्माना एवं यदा कदा दण्ड से काम चल जाएगा। साथ ही साथ वे कारपोरेट ब्लैकमेल का भी शिकार हो रहे हैं जब यह कहा जाता है कि ‘‘अमित्रवत व्यापारिक वातावरण कम्पनी को राज्य (अफगानिस्तान) से बाहर निष्कासित कर देगा।’’
उपर्युक्त शिकायत अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के अनेक निर्णयों पर आधारित है जिनमें से दो हमारी परिचर्चा के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे उन कारणों पर रौशनी डालते हैं जो संयुक्त राज्य अमेरिका की आर्थिक संस्थाओं के वर्तमान पतन से सम्बंधित है। साथ ही साथ ये भी स्पष्ट करते हैं कि न्यायिक एवं राजनैतिक संस्थाएँ, उस आर्थिक धोखा धड़ी का जवाब नहीं दे पा रही हैं जिसके द्वारा आर्थिक संसाधनों को मजदूर एवं मध्यम वर्ग से छीनकर बैंकों एवं आर्थिक संस्थाओं को हस्तांतरित किया जा रहा है ताकि धनी वर्ग का देश की राजनीति में दबदबा बना रहे।
स्टैण्डर्ड आॅयल आफ न्यू जेरेसी बनाम यूनाइटेड स्टेट्स नं0 221 यू0एस01 (1911) के मुकदमें में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने कारपोरेट गतिविधियों की तुलना गुलामी प्रथा से की थी। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार ‘‘सौभाग्यवश देश को मानवीय गुलामी से आजादी हासिल हो गई है जैसा कि आज सभी महसूस करते हैं परन्तु देश एक अन्य प्रकार की गुलामी की गिरफ्त में है अर्थात वह गुलामी जो धन एवं पूँजी के कुछ हाथों एवं कारपोरेशनों के हाथों में केन्द्रीय करण से उत्पन्न होती है एवं ये लोग अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए देश के सम्पूर्ण व्यापार पर कब्जा कर रहे हैं जिसमें जीवन की आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन एवं उनकी बिक्री भी शामिल है।’’
जस्टिस बै्रन्डिस ने लिगेट कम्पनी बनाम ली (नं 288 यू0एस0 517, 580) के मुकदमे में सन् 1933 में कारपोरेशनों से संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रजातंत्र एवं उसकी संस्थाओं को जो गंभीर खतरा उत्पन्न था, उस पर चिन्ता व्यक्त की। जस्टिस ब्रैण्डिस ने कहा परिवर्तन जो मजदूरों एवं सामान्य जनता के जीवन में लाए गए हैं वे इतने आधारभूत एवं सुदूरवर्ती हैं कि विद्वानों ने विवश होकर विकसित हो रही कारपोरेट संस्कृति की तुलना, सामन्तवादी प्रथा से की हैं। इन परिवर्तनों के कारण बुद्धिजीवी एवं अनुभवी व्यक्ति यह कहने पर मजबूर हो गए हैं कि न्याय पालिका धनी वर्ग के शासन के प्रति कटिबद्ध है।’’
आज संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे जजों की अधिकता है जिन्होंने कार्पोरेशनों एवं उनके हितों को सर्वोपरि रखा है। कारपोरेट निर्णय प्रक्रिया एवं कारपोरेट अपराधों ने अप्रत्याशित कानूनी स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है। परिणाम स्वरूप व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं नागरिक स्वतंत्रता की बलि दी जा रही है, चर्च एवं राज्य के पृथक्कीकरण के सिद्धांत को ताक पर रख दिया गया है, गैर कानूनी ढंग से लोगों की तलाशी ली जा रही है और उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है।
एक अक्टूबर सन् 2001-2002 में सुप्रीम कोर्ट खुलने की पूर्व संध्या पर सहायक न्यायाधीश जस्टिस साॅन्ड्रा डे ओ कोनर ने न्यूयार्क स्कूल आफँ लाॅ के ग्रीनविच विलेज कैम्पस में बोलते हुए ऐसे शब्द कहे थे जो किसी भी देश के सुप्रीम कोर्ट के कार्यरत जज के लिए अप्रत्याशित थे। उन्होंने कहा कि 11 सितम्बर के आतंकवादी हमले के बाद लोगों के प्रजातंात्रिक अधिकारों पर अप्रत्याशित ढंग से प्रतिबंध लगा दिये गए। उन्होंने आगे कहा कि यह बहुत संभव है कि हम राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बंधित आपराधिक मुकदमों के मामलों में अपने राष्ट्रीय संविधान की अपेक्षा युद्ध से सम्बंधित अन्तर्राष्ट्रीय कानून पर निर्भर करेंगे। हमारे ऊपर जो हमले हो रहे हैं उनसे विवश होकर हमें अपने आपराधिक जाँच, फोन टैपिंग एवं प्रवास से सम्बंधित कानूनों का पुनरावलोकन करना पड़ेगा।
लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स
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Thursday, November 26, 2009
लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-2
संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य
अनादिकाल से ही आदर एवं सत्य, न्याय एवं न्याय करने वाले व्यक्तियों के साथ जुड़ा रहा है जिसके कारण न्याय प्रक्रिया की पर्याप्त जाँच नहीं की जा सकी है। मानव समाज के विकास में प्राचीन काल से वर्तमान प्रजातांत्रिक युग तक यह धारणा बनी रही है कि न्यायिक शक्ति की उत्पत्ति दैवीय है। जैसे-जैसे आधुनिक संवैधानिक व्यवस्था नवीन सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक सत्य को ध्यान में रखते हुए अपनायी गई, न्याय पालिका राज्य के एक पृथक अंग के रूप में उभरकर सामने आई। यूरोप में शक्ति पृथक्कीकरण के सिद्धांत को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई। सत्रहवीं सदी में इंग्लैण्ड में व्यापारिक एवं वाणिज्यिक वर्गों ने राजा की निरंकुशता को चुनौती दी। गृह युद्ध के फलस्वरूप राजा को फाँसी दी गई ताकि इंग्लैण्ड में संसद की स्वच्छता को स्थापित किया जा सके। मध्यम वर्ग ने संसद के अन्दर तथा बाहर अपनी उपस्थिति एक प्रभावी वर्ग के रूप में दर्ज की।
1789 की फ्रांसीसी क्रांति के पश्चात फ्रांस में भी सत्ता का हस्तान्तरण राजतंत्र से व्यापारिक वर्ग को किया गया। फ्रांसीसी क्रांति का नेतृत्व मध्यम वर्ग ने किया। इसमें मजदूरों एवं किसानों ने अहम भूमिका अदा की। क्रांतिकारी हिंसा एवं अन्य बहुत सी ज्यादतियाँ जो इस क्रांति के फलस्वरूप लोगों पर हुईं, वे उन सारी हिंसा, अन्याय, कष्ट एवं पीड़ा से कहीं कम थीं जो निरंकुश राजतंत्र एवं कुलीन वर्ग के द्वारा इसके पूर्व की गईं। यही कुछ लोग सम्पूर्ण कृषि एवं व्यावसायिक सुविधाओं का भोग करते रहते थे। यही कुलीन वर्ग के लोग आम लोगों पर अत्याचार करते, उनको जेल में डालते एवं उनकी हत्या कर देते। जवाहर लाल नेहरू ने फ्रांसीसी क्रांति पर टिप्पणी करते हुए जेल में लिखा था:-
‘‘फ्रांसीसी आतंक एक बहुत भयानक चीज थी। यह फ्रांस की क्रांति से पहले की गरीबी एवं बेरोजगारी की बुराइयों की तुलना में एक पिस्सू की दंश की भाँति थी। सामाजिक क्रांति का मूल्य चाहे कितना बड़ा ही क्यों न हो, वह उन बुराइयों एवं युद्ध की कीमत से कम है जिनका सामना हमें वर्तमान सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था में समय-समय पर करना पड़ता है। फ्रांस की क्रांति का भय अभी बना हुआ था क्योंकि कुलीन वर्ग के बहुत से लोग इस क्रांति में भुक्तभोगी थे एवं हमारी परम्परा इस विशिष्ट वर्ग के प्रति सम्मान की रही है। इस वर्ग से हमदर्दी करना गलत नहीं है। एवं हमारी शुभकामनायें उनके साथ है, परन्तु जो लोग अधिक महत्वपूर्ण हैं, वे आम लोग हैं। हम कुछ लोगों के लिए बहुसंख्यक वर्ग (आम लोगों) की बलि नहीं दे सकते है।’’
इन्ही राजनैतिक विकासों के फलस्वरूप, अमेरिकी स्वतंत्रता के 1776 के युद्ध के पश्चात, शक्ति का सन्तुलन बनाए रखने के लिए, शक्ति पृथक्वीकरण के सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया एवं एक स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था अमेरिकी संविधान में की गई। यह व्यवस्था फ्रांसीसी राजनैतिक दार्शनिक, मान्टेस्क्यू एवं यूरोप में हुए घटनाक्रम के फलस्वरूप हुई।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता एवं राजनैतिक सत्य में कहाँ तक समानता है, इस बात का फैसला करने के लिए अमेरिका (यू0एस0ए0) एवं भारत के सर्वोच्च न्यायालयों की कार्यप्रणाली का गूढ़ अध्ययन करना होगा। यह आमतौर पर स्वीकार किया जाता है कि अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय का इतिहास वास्तव में अमेरिका का इतिहास है। इसके कथनों एवं निर्णयों में अमेरिकी समाज का गूढ संघर्ष एवं तनाव दृष्टिगोचर होता है। यही बात भारतीय सर्वोच्च न्यायालय पर भी लागू होती है, हालाँकि उस सीमा तक नहीं, क्योंकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँच, न्यायिक सहायता के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले अधिकांश लोगों के लिए संभव नही है। अमेरिकी एवं भारतीय दोनों सर्वोच्च न्यायालयों को न्यायिक पुनरावलोकन की असीम शक्तियाँ प्राप्त है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय सैद्धांतिक रूप से अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय से अधिक शक्तिशाली है।
परन्तु वास्तविकता कहीं इससे परे है। इन देशों की न्यायिक संस्थाएँ, आर्थिक एवं राजनैतिक नीतियों से काफी सीमा तक प्रभावित होती हंै। पिछली दो सदियों में न्यायपालिका यद्यपि एक पृथक संस्था के रूप में उभरकर आई है, तथापि यह आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक अन्याय के प्रति, राजनैतिक संघर्ष का बदल नही हो सकती है। यह संघर्ष ही किसी समाज में शक्तियों के सन्तुलन को परिवर्तित करता है। न्यायपालिका अपने नेक इरादों के बावजूद भी, सामाजिक आर्थिक एवं राजनैतिक क्रांति को जन्म नहीं दे सकती है क्योंकि इसका कार्य वर्तमान कानूनों की व्याख्या करना एवं उसको लागू करना है। वर्तमान कानून केवल वर्तमान स्थिति का प्रतिनिधित्व करते हंै। यदि विधायिका एवं कार्यपालिका स्थिरता की ओर झुकी हुई हंै या अवनति या प्रतिक्रिया के मार्ग पर हंै, तो न्यायपालिका की परेशानियाँ और भी बढ़ जाती हंै। इन सीमाओं के बावजूद भी, यह न्यायपालिका का संवैधानिक उत्तरदायित्व है कि वह मूलभूत अधिकारों की रक्षा करे तथा जीवन के अधिकार एवं राजनैतिक स्वतंत्रता के कानून के समक्ष, समानता के अधिकार की रक्षा करे, सामाजिक आर्थिक अन्यायों एवं भेदभावों के उन मामलों को समाप्त करे जो न्यायपालिका के समक्ष प्रस्तुत किए जाएँ।
अमेरिकी समाज में एक पृथक एवं भिन्न न्याय व्यवस्था की स्थापना मात्र से न्याय की प्राप्ति संभव नहीं हुई। डेªड स्काट बनाम जाॅन एफ0 ए0सैनफोर्ड मुकदमा, 60 यू एस0 393 जिसका फैसला 1857 में हुआ, इसका जीता जागता सबूत है। मुख्य न्यायाधीश ने फैसला दिया कि ‘‘एक गुलाम की हैसियत, सम्पत्ति से अधिक नहीं है। वह व्यापार एवं क्रय की एक वस्तु है। अमेरिकी स्वतंत्रता की उद्घोषणा की तरफ इंगित करते हुए मुख्य न्यायाधीश रोजर बी0 टैने ने इस मामले में टिप्पणी भी की थी कि ‘‘ इस विवाद से पूरी तरह स्पष्ट है कि गुलाम अफ्रीकन प्रजाति को वे लोग अपने में शामिल करना नहीं चाहते थे जो कानून बना रहे थे या उसको लागू कर रहे थे।’’ यह निर्णय उस समय के कपास एवं अन्य बाग़वानी करने वाले मालिकों के हितों की रक्षा करने से प्रेरित था। यही वर्ग उस समय अमेरिका के प्रभावकारी आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व करता था। उस समय के दुराग्रह अब भी विद्यमान हैं। यही कारण है कि अमेरिकी प्रशासन संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा पारित डरबन नस्लवाद (प्रथम) एवं डरबन नस्लवाद (द्वितीय) के विरुद्ध एवं इजराइल के नस्लीय भेदभाव (जहाँ कि चुनी हुई प्रजाति की नीति सरकारी नीति है) के विरुद्ध प्रस्तावों के सम्बन्ध में प्रभावकारिता से सहयोग करने या उनको लागू करने में पूरी तरह अक्षम साबित हुआ है।
यद्यपि अमेरिका में गुलामी प्रथा का अन्त कर दिया गया है फिर भी वर्ग एवं जाति पर आधारित नस्लवाद अमेरिकी न्यायिक व्यवस्था में अब भी मौजूद है। अफ्रीकी नस्ल के काले अमेरिकी, मजदूर एवं खेतिहर मजदूर का एक बड़ा हिस्सा हैं। कुछ दशक पूर्व उन्हें वोट देने का अधिकार न था। इसलिए उनका राजनैतिक प्रभाव नहीं है। आज लगभग तेईस लाख उन्नीस हजार दो सौ अट्ठावन नागरिक व्यक्तिगत (प्राइवेट) अमेरिकी जेलों में बंद हैं।
यह विश्व की सबसे बड़ी जेल संस्था है। अमेरिका के जेल, जो एक प्रकार का उद्योग हैं, प्राइवेट हाथों में हंै। यह एक बढ़ता हुआ उद्योग है। अमेरिका में उच्च शिक्षा की अपेक्षा जेलों पर अधिक पैसा व्यय किया जाता है। यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि अफ्रीकी नस्ल के काले अमेरिकी, अमेरिकी जेलों में सर्वाधिक हैं। लगभग 9 लाख काले अमेरिकी जेलों में सड़ रहे हैं। 20 से 35 आयु वर्ग के पुरूषों में 9 में से एक अफ्रीकी अमेरिकन जेल में है एवं 35 से 39 आयु वर्ग की महिलाओं में 100 में से एक अफ्रीकी- अमेरिकन महिला नागरिक जेलों में बन्द है। उनमें से अधिकतर लोग ऐसे हैं जो कि ड्रग सम्बंधी एवं अन्य छोटे-मोटे अभियोगों में जेलों में बन्द हैं। एक काले अमेरिकी व्यक्ति ओबामा का राष्ट्रपति के रूप में चुनाव अतीत से एक भिन्न वस्तु अवश्य है, परन्तु इसने अमेरिकी समाज की, जो कि एक बड़े आर्थिक संकट से त्रस्त है एवं कर्जे में डूबा हुआ है, सामाजिक तथा राजनैतिक सच्चाई को नही बदला है एवं अमेरिकी समाज का मूल ढाँचा वैसे ही मौजूद है। यद्यपि पचास के दशक के अफ्रीकी-अमेरिकनों पर हत्या के नजरिये से आक्रमण अब अतीत का हिस्सा बन गया है फिर भी अमेरिकी पुलिस समय-समय पर अपने कुकृत्यों से श्वेत वर्ग की ओर अपने नस्लीय झुकाव को पूरी तरह से जाहिर करती रहती है। अबू जमाल जो कि एक सम्मानित अफ्रीकी नस्लीय, अमेरिकन पत्रकार एवं प्रसिद्ध राजनैतिक कार्यकर्ता है पिछले 25 वर्षों से अमेरिकी जेल में सड़ रहा है। वह अब मृत्यु की कगार पर है। उसकी पुनः मुकदमा करने की अपील को अमरीकी सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दिया है। यह मामला सम्पूर्ण अमेरिकी न्याय व्यवस्था एवं अमेरिकी जजों की निष्पक्षता पर एक सवालिया निशान खड़ा करता है।
लेखिका-नीलोफर भागवत
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Wednesday, November 25, 2009
लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-1
संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य
पश्चिमी उदारवादी प्रजातंत्र एवं पश्चिम तुल्य प्रजातांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखने वाले विधिवेत्ता, न्यायाधीश एवं अधिवक्ता न्यायपालिका की स्वतंत्रता का बखान करने से नहीं थकते। परन्तु शायद ही ऐसा कोई हो जो इस संस्था की वाह्य मान्यता एवं आडम्बर के उस पार भी देखने का प्रयास करता हो। शायद ही कोई ऐसा हो जो इस बात का पता लगाने का प्रयास करे कि संवैधानिक व्यवस्था की कार्य प्रणाली की वास्तविकता एवं सिद्धान्त में कितना मेल है? जजों की व्यक्तिगत क्षमता, ईमानदारी एवं उनके द्वारा उच्चतम् कोटि की न्यायिक दक्षता को यदि अलग रख दिया जाये, तो राजनैतिक एवं आर्थिक व्यवस्था की पृष्ठभूमि निर्मित कानूनों की प्रकृति, नौकरशाही एवं पुलिस की कार्यप्रणाली, खुफिया एजेंसियों की कार्यप्रणाली एवं प्रकृति, योग्य वकीलों तक पहुँच, राज्य द्वारा प्रदत्त कानूनी सहायता, मुकदमों का निष्पक्ष एवं त्वरित फैसला ये सभी ऐसे कारक है जो कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को प्रभावित करते हैं। निस्संदेह रूप से जजों की चयन प्रक्रिया न्यायिक स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता की प्राप्ति में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
यदि न्याय बिना भय एवं पक्षपात के प्राप्त करना है तो उसके लिए आवश्यक है कि उन परिस्थितियों पर नियंत्रण रखा जाये, जो समाज को चरम सीमा तक आर्थिक एवं सामाजिक धु्रवों में विभाजित करती हैं। समाज को ऐसे आर्थिक एवं सामाजिक शोषण से मुक्त रखें जो मानव को धर्म, जाति, वर्ग, नस्ल एवं लिंग के आधार पर विकसित करता हो तथा जो राजनैतिक प्रभाव एवं सामाजिक आलोचना से मुक्त हो।
राजनैतिक यथार्थ को सामने रखकर ही हम इस परिचर्चा को आगे बढ़ा सकते हैं। विशेष रूप से हमारे लिए यह प्रश्न करना महत्वपूर्ण है कि क्या न्यायपालिका वर्तमान समय में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से कार्य कर सकती है! जबकि हमारी राजनैतिक एवं संवैधानिक व्यवस्था का सिर्फ ढाँचा ही शेष रह गया तथा कि कारपोरेट घरानों के द्वारा मुख्य क्षेत्रों को पंगु बना दिया गया है। धन का संचय कुछ ही हाथों में सिमट कर रह गया है, जबकि महत्वपूर्ण आर्थिक एवं वित्तीय नीतियाँ धनी वर्ग के पक्ष में हैं। समाज का अपराधीकरण हो चुका है, जबकि नेटवर्किंग कारपोरेटों के द्वारा मीडिया के माध्यम से कई देशों में युद्ध़़ किया जा रहा है एवं राजनैतिक माध्यमों के द्वारा लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से गुलाम बनाया जा रहा है, ताकि वे समाज पर आर्थिक एवं अन्य तरीकों से नियंत्रण बनाये रखने में सफल हो सकें।
इस युग की वास्तविकताओं में अमेरिका, ब्रिटेन नियंत्रित अधिग्रहीत देशों में बागराम, अबू गरीब एवं ग्वान्टानामों बे की जेले हैं, गुप्त रूप से आर्थिक सहायता देकर विभाजित करने के लिए (दूसरे देशों में) बम विस्फोट करवाया जाता है, जिसमें हजारों बेगुनाह लोग मारे जाते हैं एवं हजारो लोग हमेशा के लिए अपाहिज हो जाते हैं। गुप्तचर एजेन्सियाँ इस बात से पूरी तरह भिज्ञ होती हैं। एक अन्य वास्तविकता-अमेरिका का पैट्रियट एवं होमलैण्ड कानून हैं जो वहाँ के नागरिकों के जीवन को नियंत्रित करता है।
कुछ देशों में मुकदमे जेल की दीवारों के अन्दर चलाए जाते हैं ताकि लोगों की निगाहों से सत्य को छुपाया जा सके। एक राष्ट्र की कानून व्यवस्था के अन्तर्गत सैनिक न्यायालयों का गठन किया जाता है। अनेक गणतन्त्रात्मक क्रांतियों की ऐतिहासिक स्मृतियों के बावजूद, यूरोप में अवैध रूप से लोगों को गिरफ्तार किया जाता है एवं गुप्त जेलों में रखा जाता है। अफ्रीका एवं एशिया के देशों में विशेष रूप से भारत तथा पाकिस्तान के लोगों को गैर कानूनी ढंग से गिरफ्तार किया जाता है। सरकार अधिग्रहीत सेनाओं से मिलकर अपने देश के लोगों पर बमबारी करवाती है जिसके कारण हजारों बेगुनाह लोग लापता हो गए हैं। वकीलों पर भारत में फासीवादी शक्तियों के द्वारा किराये के गुण्डों के द्वारा आक्रमण कराया जाता है। पुलिस मूक दर्शक बनी देखती रहती है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि फासीवादी शक्तियों पर चलाए गए मुकदमों को रोका जा सके तथा धमाकों एवं सामूहिक हत्याओं के पीछे छिपे सत्य को प्रकट होने से रोका जा सके। मुख्य जाँचकर्ता अधिकारियों की हत्या करवा दी जाती है। फिलीपाइन्स में जन आन्दोलनों के प्रतिनिधियों, जिनमें वकील भी शामिल हैं को मौत के घाट उतार दिया जाता है। इस्राइल के द्वारा, जहाँ कि कानून व्यवस्था नस्ल एवं अन्याय पर आधारित है, पैलिस्टाइन भूमि पर अवैध रुपसे कब्जा कर लिया गया है एवं घरों को तबाह व बरबाद कर दिया गया है। हद तो यह कि इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को प्रजातांत्रिक कहा जा रहा है। इराक में हजारों बेगुनाह जेलों में सड़ रहे हैं। लाखों लोग शरणार्थी बन चुके हैं। उन लोगों के जीवन का कोई महत्व नहीं रह गया है। इराक पर अमेरिका का अनधिकृत कब्जा है एवं सार्वजनिक पदों पर सम्प्रदाय के आधार पर नियुक्तियाँ की जा रहीं है। अफ्रीका महाद्वीप में कांगो में संसाधनों पर कब्जा करने के लिए युद्व चल रहा है। छापा मार सेनाएँ विदेशी कम्पनियों एवं सरकार के साथ साठ गाँठ करके गृह-युद्धभड़का रही हैं । साथ ही साथ व्यक्तिगत सेनाएँ भी सक्रिय हैं । चीन में हजारों फैक्टरियाँ बन्द हो चुकी हैं एवं फैक्ट्रिरियों के मालिक हजारों मजदूरों का बकाया धन लेकर फरार हो चुके हैं। जापान मे बेरोजगारी दिन प्रतिदिन बढ़ रही है जिससे वहाँ आत्महत्या की दर में जो पहले ही बहुत ज्यादा थी अब और बढोत्तरी हो रही है। ये कुछ ऐसे सत्य हैं, जिसकी पृष्ठभूमि में हमारे न्यायिक संस्थान कार्य कर रहे हैं। इन परिस्थितियों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का पुनरावलोकन करना आवश्यक है ताकि हम सत्य की तह तक पहुँच सकें।
लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स
अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854
जारी ....
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Tuesday, November 24, 2009
लो क सं घ र्ष !: बाबरी मस्जिद और लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट
बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने के बाद सरकार ने लिब्रहान आयोग की स्थापना की थी। जिसकी रिपोर्ट संसद में पेश नही हुई कि उससे पूर्व मीडिया ने उसको प्रसारित कर दिया जिसको लेकर संसद में जबरदस्त हो हल्ला हंगामा हुआ। सरकार जब महंगाई के मोर्चे पर जबरदस्त तरीके से असफल है तो लोगो का ध्यान हटाने के लिए लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट की लीकेज़ का ड्रामा शुरू कर दिया है । जिससे जनता का ध्यान मूल समस्याओं का ध्यान हटा रहे। लिब्रहान आयोग की आयोग भी स्पष्ट तरीके यह कहती है की राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उनके अनुशांगिक संगठनों ने योजनाबद्ध तरीके से बाबरी मस्जिद को तोडा था । केन्द्र सरकार में यदि जरा सा भी नैतिक साहस है तो ऐसे संगठनों के ऊपर प्रतिबन्ध लगा दे जो देश की एकता और अखंडता को क्षति पहुंचाते है ।
कांग्रेस की धर्म निरपेक्ष सोच बदल चुकी है जिसके चलते फांसीवादी संगठन बढ़ते हैं और देश के अन्दर दंगे फसाद शुरू होते हैं । महाराष्ट्र के अन्दर भी शिव सेना की गतिविधियाँ जारी रखने में समय-समय पर कांग्रेस सरकार का भी संरक्षण रहता है अन्यथा राज ठाकरे बाल ठाकरे जैसे लोग पनप ही नही सकते हैं । लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट में कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिम्हा राव की भूमिका को स्पष्ट नही किया है। श्री नरसिम्हा राव साहब ने अगर चाहा होता तो बाबरी मस्जिद को आराजक व फांसीवादी तत्व गिरा नही सकते थे । आज भी इन तत्वों का प्रचार अभियान जारी है समय रहते हुए यदि उचित कार्यवाही नही की गई तो यह देश की एकता और अखंडता के लिए गंभीर खतरा होंगे व एक नया आयोग बनेगा और उसकी भी रिपोर्ट लीक होगी ।
सुमन
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Monday, November 23, 2009
लो क सं घ र्ष !: पुलिस ठगी गयी अपने जाल साजों से
उत्तर प्रदेश पुलिस आये दिन आतंकवाद से लेकर भ्रष्टाचार से लड़ने तक का दावा करती रहती है । विभाग में कार्यरत जालसाजों ने 1986 में एक शासनादेश में परिवर्तन कर उसको पूरे विभाग के ऊपर लागू करा दिया। पुलिस विभाग में नियम यह है कोई पुलिस कर्मचारी पुलिस अफसर अपने गृह जनपद या गृह के नजदीक तैनात नही रह सकता है , किंतु जालसाजों ने 11 जुलाई 1986 में एक फर्जी शासनादेश जारी कर उस नियम में परिवर्तन कर लिया और उनके अपने गृह जनपद में भी तैनाती होने लगी । अपराधियों से साँठ-गाँठ करना तथा अपराधों में भी लिप्त होना लगा रहेगा । उत्तर प्रदेश गृह विभाग के भोले-भाले अधिकारी व पुलिस के उच्च अधिकारी फर्जी शासनादेश को लागू करते रहे है । अब जाकर इस खुलासा हुआ है कि उक्त शासनादेश फर्जी है। इससे पहले पुलिस विभाग की भर्तियाँ फर्जीवाड़ा का एक उत्कृष्ट नमूना है। ऐसे भोले भाले अधिकारियों से कानून व्यवस्था बचाए और बनाये रखने की उम्मीद रखना बेईमानी है ।
आज जरूरत इस बात की है कि पूरे पुलिस विभाग की ईमानदारी से समीक्षा की जाए और अपराधी और भ्रष्टाचारी तत्वों से उसको साफ़ किया जाए । वर्तमान में पुलिस के क्रियाकलापों को देखकर माननीय न्यायमूर्ति आनंद नारायण मुल्ला की टिपण्णी याद आ जाती है कि पुलिस अपराधियों का एक संगठित गिरोह है, इसके अतिरिक्त कुछ नही है। आये दिन पुलिस अपने जालसाजों से ठगी जायेगी और जनता तबाह होती रहेगी और सबसे बड़े आश्चर्य कि बात यह है कि जिस तरीके से अपराधियों का अपराधिक इतिहास होता है उसी तरीके से थाने से लेकर पुलिस प्रमुख तक का भी अपराधिक इतिहास होता है , सिर्फ़ उसको प्रकाशित करने कि जरूरत है ।
सुमन
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Sunday, November 22, 2009
लो क सं घ र्ष !: भू लोक से लोगो को बिना टिकट स्वर्ग लोक भेजने का कार्य
प्रधानमंत्री जी ,
रेल मंत्री पद पर सुश्री ममता बनर्जी आसीन हैं । रेल विभाग की हालत यह हो गई है कि प्रतिदिन अखबार के मुख्य पृष्ट से ज्ञात होता है कि कोई न कोई दुर्घटना हो गई है । आज के अखबार में छपा है कि गोरखधाम एक्सप्रेस ट्रक से टकराया या आए दिन ट्रेन टे्क्टर भिडंत में 4 मरे", "ओवर स्पीडिंग से मंडोर एक्सप्रेस पलटी, 7 मरे ", "मालगाड़ी पलटी रेल मार्ग ठप " के शीर्षक से समाचार प्रकाशित होते रहते हैं । मुझे भी अम्बाला से लखनऊ तक की यात्रा का अच्छा अनुभव इस बीच में हुआ। स्लीपर क्लास के डिब्बे में चार शौचालय होते हैं चारो टूटे-फूटे थे। उनके दरवाजे टूटे थे, पानी नदारद था यात्री सुविधाएं शून्य थी । हाँ हर बड़े स्टेशन पर चेकिंग स्टाफ आकर यात्रियों से वसूली जरूर कर रहा था , जुर्माने कर रहे थे। रेलवे के अधिकारीयों से बात करने पर यह भी पता चला कि टै्फिक स्टाफ बहुत कम है जो स्टाफ है उससे 18-18 घंटे कार्य लिया जा रहा है जिससे उनकी कार्यकुशलता में कमी आ रही है एक स्टेशन मास्टर ने बताया कि उनकी ड्यूटी पीरीयड़ में 200 ट्रेनों को पास कराना होता है । साँस लेने की फुर्सत नही होती है ऐसे समय में मानवीय चूक तो होगी ही ।
रेल मंत्री सुश्री ममता बनर्जी के पास रेल मंत्रालय के लिए वक्त नही है। ममता बनर्जी की इच्छा है कि बंगाल की वाम मोर्चा सरकार को किसी भी तरीके से हटा कर स्वयं मुख्य मंत्री बने । उनकी इच्छा पूर्ति के लिए उन्हें वाम मोर्चा सरकार हटाओ मंत्री बना दें । किसी दूसरे व्यक्ति को रेल मंत्रालय देखने की लिए दे दीजिये । रेल में सफर करने का यह मतलब यह नही है कि आप भू लोक से लोगो को बिना टिकट स्वर्ग लोक भेजने का कार्य करें ।
सुमन
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