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Friday, July 17, 2009

एक हिन्दुस्तानिकी ललकार, फिर एक बार !

कुछ अरसा पहले लिखी गई कवितायें, यहाँ पेश कर रही हूँ। एक ऑनलाइन चर्चामे भाग लेते हुए, जवाब के तौरपर ये लिख दी गयीं थीं। इनमे न कोई संपादन है न, न इन्हें पहले किसी कापी मे लिखा गया था...कापीमे लिखा, लेकिन पोस्ट कर देनेके बाद। एक श्रृंखला के तौरपे सादर हुई थीं, जिस क्रम मे उत्तर दिए थे, उसी क्रम मे यहाँ इन्हें पेश कर रही हूँ। मुझे ये समयकी माँग, दरकार लग रही है। १)किस नतीजेपे पोहोंचे? बुतपरस्तीसे हमें गिला, सजदेसे हमें शिकवा, ज़िंदगीके चार दिन मिले, वोभी तय करनेमे गुज़ारे ! आख़िर किस नतीजेपे पोहोंचे? ज़िंदगीके चार दिन मिले... फ़सादोंमे ना हिंदू मरे ना मुसलमाँ ही मरे, वो तो इंसान थे जो मरे! उन्हें तो मौतने बचाया वरना ज़िंदगी, ज़िंदगी है, क्या हश्र कर रही है हमारा,हम जो बच गए? ज़िंदगीके चार दिन मिले... देखती हमारीही आँखें, ख़ुद हमाराही तमाशा, बनती हैं खुदही तमाशाई हमारेही सामने ....! खुलती नही अपनी आँखें, हैं ये जबकि बंद होनेपे! ज़िंदगीके चार दिन मिले, सिर्फ़ चार दिन मिले..! २) खता किसने की? खता किसने की? इलज़ाम किसपे लगे? सज़ा किसको मिली? गडे मुर्दोंको गडाही छोडो, लोगों, थोडा तो आगे बढो ! छोडो, शिकवोंको पीछे छोडो, लोगों , आगे बढो, आगे बढो ! क्या मर गए सब इन्सां ? बच गए सिर्फ़ हिंदू या मुसलमाँ ? किसने हमें तकसीम किया? किसने हमें गुमराह किया? आओ, इसी वक़्त मिटाओ, दूरियाँ और ना बढाओ ! चलो हाथ मिलाओ, आगे बढो, लोगों , आगे बढो ! सब मिलके नयी दुनिया फिर एकबार बसाओ ! प्यारा-सा हिन्दोस्ताँ यारों दोबारा बनाओ ! सर मेरा हाज़िर हो , झेलने उट्ठे खंजरको, वतन पे आँच क्यों हो? बढो, लोगों आगे बढो! हमारी अर्थीभी जब उठे, कहनेवाले ये न कहें, ये हिंदू बिदा ले रहा, इधर देखो, इधर देखो ना कहें मुसलमाँ जा रहा, कोई इधर देखो, ज़रा इधर देखो, लोगों, आगे बढो, आगे बढो ! हरसूँ एकही आवाज़ हो एकही आवाज़मे कहो, एक इन्सां जा रहा, देखो, गीता पढो, या न पढो, कोई फ़र्क नही, फ़ातेहा भी , पढो, या ना पढो, लोगों, आगे बढो, वंदे मातरम की आवाज़को इसतरहा बुलंद करो के मुर्दाभी सुन सके, मय्यत मे सुकूँ पा सके! बेहराभी सुन सके, तुम इस तरहाँ गाओ आगे बढो, लोगों आगे बढो! कोई रहे ना रहे, पर ये गीत अमर रहे, भारत सलामत रहे भारती सलामत रहें, मेरी साँसें लेलो, पर दुआ करो, मेरी दुआ क़ुबूल हो, इसलिए दुआ करो ! तुम ऐसा कुछ करो, लोगों आगे बढो, आगे बढो!! ३)एक ललकार माँ की ! उठाये तो सही, मेरे घरकी तरफ़ अपनी बद नज़र कोई, इन हाथोंमे गर खनकते कंगन सजे, तो ये तलवारसेभी, तारीख़ गवाह है, हर वक़्त वाकिफ़ रहे ! इशारा समझो इसे या ऐलाने जंग सही, सजा काजलभी मेरी, इन आँखोमे , फिरभी, याद रहे, अंगारेभी ये जमके बरसातीं रहीं जब, जब ज़रूरत पड़ी आवाज़ खामोशीकी सुनायी, तुम्हें देती जो नही, तो फिर ललकार ही सुनो, पर कान खोलके इंसानियत के दुश्मनों हदमे रहो अपनी ! चूड़ियाँ टूटी कभी, पर मेरी कलाई नही, सीता सावित्री हुई, तो साथ चान्दबीबी, झाँसीकी रानीभी बनी, अबला मानते हो मुझे, आती है लबपे हँसी!! मुझसे बढ़के है सबला कोई? लाजसे गर झुकी, चंचल चितवन मेरी, मत समझो मुझे, नज़र आता नही ! मेरे आशियाँ मे रहे, और छेद करे है, कोई थालीमे मेरी , हरगिज़ बर्दाश्त नही!! खानेमे नमक के बदले मिला सकती हूँ विषभी! कहना है तो कह लो, तुम मुझे चंचल हिरनी, भूल ना जाना, हूँ बन सकती, दहाड़ने वाली शेरनीभी ! जिस आवाज़ने लोरी, गा गा के सुनायी, मैं हूँ वो माँ भी, संतानको सताओ तो सही, चीरके रख दूँगी, लहुलुहान सीने कई !! छुपके वार करते हो, तुमसे बढ़के डरपोक दुनियामे है दूसरा कोई?

3 comments:

shama said...

Mujhe samajh me nahee aa raha,ki, hazar koshishon ke baawjood, ye rachnayen, alag, alag kyon nahee ho paa rahee hain?

Kshama chahtee hun..jab post keen, tab ye samasya nahee dikhi..aaj nazar aa rahee hai..

http://kavitasbyshama.blogspot.com

is blogpe ye rachnayen maujood hain..

Asha Joglekar said...

शमाजी, इतनी अच्छी आपकी कविताएँ पर पता नही क्यूं इस ब्लॉग पर उनका प्रेझेन्टेशन ठीक नही हो पा रहा है । हाल ही में जितनी भी कविताएँ प्रेषित हुईं हैं सबका हाल यही है । कारण समझ में नही आ रहा ब्लॉग एग्रीगेटर का ध्यान इस तरफ खींचना चाहिये । कविता पेश करने का एक सलीका होता है जो य़ह ब्लॉग नही दे पारहा है

Anonymous said...

Hi,

Thank You Very Much for sharing this informative article here.

-- Health Facts | Health Care Facts | Alternative Health News

Nice Work Done!!

Paavan

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