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Wednesday, July 15, 2009

लो क सं घ र्ष !: औसत का खेल

मुझे इस बात का जरा भी भान न था कि मैं अपने लिए एक मोटरसाइकल नहीं, एक नई मुसीबत मोल ले रहा हूं। खैर, जो होना था सो हो गया। यह हम जैसे आम आदमी का मूलमंत्र है। मोटरसाइकल मैंने अपनी सहुलियत के लिए ली थी। कही आने-जाने में आसानी होती। समय की बचत सो अलग। मोटरसाइकल पर बैठ कर मेरी गतिशीलता में वृद्धि होती। इन सब बातों को मद्देनजर रखते हुए, मैंने एक मोटसाइकल खरीदी। अभी उसे ले कर घर आता नहीं हूं कि मेरे पड़ोसी पूछ उठाते हैं,‘‘ कितने का एवरेज कंपनी वाले क्लेम कर रहे है।’’ पड़ोसी का मतलब गाड़ी के माइलेज से था। उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा,‘‘ कंपनी वाले जितना बताए उससे दस-बीस किलोमीटर कम मान कर चलना चाहिए, भाईसाहब।’’ पहले दिन से ही यह सवाल ‘ क्या एवरेज दे रही है!’ मेरे पीछे लग गया। मैं जहाँ जाता, यह सवाल मुझसे टकरा जाता। कभी सीधे-सीधे , तो कभी एक लंबी भूमिका के बाद। कभी यह मेरी गाड़ी के पीछे-पीछे आता, तो कभी मुझसे पहले ही पहुंच जाता। गाड़ी लेने के बाद शायद ही कोई दिन ऐसा बीता हो जब यह सवाल ‘ क्या एवरेज दे रही है ’ मुझ पर न दागा गया हो। मेरा जवाब सिर्फ इतना होता,‘‘पता नहीं’’। मेरा जवाब सुनकर लोग मुझ पर शक करते। जबकि मैं अपने जानिब उन्हें सही कहता । कुछ दिन बाद मेरी हालत यह हो गई, जैसे ही कोई ‘ क्या एवरेज दे रही है ’ पूछता, मुझे सांप सूंघ जाता। गाड़ी चलाने को मजा फुर्र हो जाता। नई-नई गाड़ी लाने के उत्साह के समंदर को, यह सवाल एक पल में खाली कर देता। आखिर,, मैंने ठान लिया कि गाड़ी का एवरेज पता करके छोडूंगा। फिर शुरू हुआ मेरा एवरेज पता लगाने का एक अंतहीन सिलसिला। जिसने मेरी मानसिक शांति को हर लिया। गाड़ी में कितना पेट्रोल है ! गाड़ी कितने किलोमीटर चली ! कल कितने का एवरेज दिया ! आज कितने का एवरेज है ! एक-एक बात का, मैं हिसाब रखने लगा। गाड़ी जब अधिक एवरेज देती, तो खुशी का ठिकाना न रहता। मगर अगले दिन का कम एवरेज मेरे कल की खुशी को ठिकाने लगा देता। एवरेज कम आने पर पेट्रोल की गुणवत्ता कभी मेरे निशाने पर होती, तो कभी शहर का टैªफिक। एवरेज कम आने के कारणों में भिन्नता हो सकती थी, मगर एवरेज अधिक आने का सारा श्रेय सिर्फ और सिर्फ मेरी गाड़ी चलाने की कुशलता को जाता। उन दिनों मेरी हालत देखकर आप मुझे एवरेज का मारा कह सकते थे। एवरेज यानी औसत। इस शब्द ने पहले कभी मेरा घ्यान नहीं खींचा था। मोटरसाइकिल लेने के बाद औसत को लेकर मैं बुरी तरह से उलझ गया। हालांकि मोटरसाइकिल से मेरा स्नेह बराबर बना रहा, मगर औसत ने मुझे मजबूर कर दिया कि मैं उसके बारे में कुछ सोचूं। कुछ सवाल मेरे जहन में उठने लगे। मसलन, इसकी उत्पति कैसे हुई ! अविष्कारक कौन है ! औसत प्रचलन में कैसे आया ! औसत मुझे बड़ा ही चमत्कारी लगा, जब इसके विषय में मैं सोचने लगा। आखिर क्यों, नितिनियंता इस एक शब्द का काफी इस्तेमाल करते हैं। मैंने इसके उत्पति के बारे में कल्पना की; - बहुत समय पहले, किसी राज्य में एक राजा राज करता था। जो निरंकुश और विलासी था। प्रजा की भलाई छोड़, वो सुरा-सुंदरी में डूबा रहता। राज्य का सारा कार्यभार उसके कुछ चापलूस मंत्री चलाते । राजा की अकर्मण्यता और उदासीनता के चलते प्रजा की हालत दयनीय हो गई। जब स्थिति असहनीस हो गई, तब प्रजा ने विद्रोह कर दिया। उसने चारों तरफ से महल को घेर लिया। तब राजा ने घबराकर अपने मंत्रियों से अपातकालीन मंत्रणा की। राजा ने बदहवाशी में अपने मंत्रियों से कहा,‘‘ ऐसा कोई उपाय निकालो जिससे यह आसन्न संकट टल जाए। नहीं तो आज हम सब मारे जाएंगे। अगर प्रजा ने महल पर कब्जा करने की ठान ली, तो उसको हमारी सेना भी नहीं रोक पाएंगी।’’ तभी एक बूढा मंत्री मुस्कुराया। उसने कुछ सोच लिया था। वो राजा से बोला,‘‘ महाराज, आप चिंता न करें। मैंने एक ऐसा उपाय निकाला है कि प्रजा उल्टे पांव लौट जाएंगी।’’ राजा को सहसा विश्वास नहीं हुआ। परन्तु बूढे़ मंत्री के कहने पर, वो महल के बाहर आया। उसने देखा कि प्रजा नारे लगा रही, ‘ हम भूखे है हमंे रोटी दो !’ ‘हम नंगे है हमे कपडे़ दो !’ बूढ़ा मंत्री बोला, ‘‘भूखे हो तो रोटी खाओ। नंगे हो तो कपड़े मोल लो।’’ इस पर प्रजा चिल्लाई,‘‘ हम कहां से खरीदे ! हमारे पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं है।’’ तभी बूढ़े मंत्री ने एक कागज का टुकड़ा निकाला और बोला,‘‘झूठ बोलते हो तुम सब, यह देखो इस कागज पर स्पष्ट लिखा है कि राज्य के प्रत्येक व्यक्ति के पास दस सोने के मोहरे है।’’ प्रजा अचरज में पड़ गयी। भला ये कैसे हो सकता है ! बूढ़ा मंत्री न जाने क्या बक रहा है ! प्रजा अभी कुछ कहती कि बूढ़ा मंत्री बोला,‘‘ इघर देखो, अभी मैं तुम सब को कुछ दिखाता हूं।’’ तब उसने राजकोष में जमा कुल मोहरों में राज्य की समस्त प्रजा से भाग दे दिया। चमत्कार ! सबके हिस्से में दस-दस मोहरंे आ गई। हिस्सेदारों में मंत्रियों के साथ राजा भी शामिल था।‘‘ मगर वो मोहरें हमें नहीं दिखती ! वो मोहरें है कहां!’’ प्रजा ने बूढे़ मंत्री से कहा। ‘‘ तुम सब के दिखने न दिखने से क्या होता है ! कागज पर तो दिख रही है न! अब सारे यहां से भाग जाओ , नहीं तो हाथियों से कुचलवा दूंगा।’’ बूढ़ा मंत्री गरजा। कागज में तो सबके हिस्से दस-दस मोहरें दिख रही थी। यह देख, प्रजा भुनभुनाते हुए लौट गई। तब बूढे़ मंत्री ने राजा से कहा,‘‘ देखा, महाराज औसत का खेल !’’ इस प्रकार औसत ने प्रजा के अंसतोष को असंमजस में डाल दिया और राजा का सिंहासन सुरक्षित रखा। तभी से औसत प्रचलन में आ गया और आज भी औसत हमारे निति नियंताओं का प्रिय बनकर उनके गोद में बैठा हुआ हैं। अनूप मणि त्रिपाठी ई- 5003 , सेक्टर - 12 राजाजी पुरम,लखनऊ मो. न. 09956789394

4 comments:

Murari Pareek said...

humm percentage ka mamlaa sachmuch badaa hi jordaar udaharn !!

मोनिका गुप्ता said...
This comment has been removed by the author.
मोनिका गुप्ता said...

ये औसत का खेल तो जीवन के लिए हमेशा से ही फायदेमंद रहा है। खासकर पत्रकारों के लिए तो यह वरदान है। जहां कोई खरी बात कहनी हो या फिर अप्रत्यक्ष रूप से किसी बात या आंकड़े को स्थापित करना हो तो औसत का सहारा लिया ही जाता है। जिस तरह आप औसत के फेर में उलझे है वैसे ही पूरी दुनिया कही न कहीं इसी औसत का शिकार है। किसी के लिए ये कमजोरी है तो किसी के लिए वरदान।
इस ब्लॉग को भी देंखे-www.goonjjharkhand.blogspot.com

Asha Joglekar said...

सत्यवचन ।

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