Thursday, July 23, 2009
हमको तो बाबाओं ने डरा दिया
कई दिनों से हमारे घर के एक कमरे में घुसते ही मैं डर जाता हूँ। ऐसे लगता है जैसे न्यूज़ चैनल्स के अन्दर बैठे विभिन्न प्रकार के पंडित,ज्ञानी,ध्यानी,ज्योतिषी बाहर निकल कर हमें बुरी नजर से बचाने के लिए नए नए अनुष्ठान शुरू करवा देंगे। एक दो आदर्शवादी चैनल को छोड़ कर, हर कोई इन बाबाओं के माध्यम से धर्म में आस्था रखने वाले लोगों को डराने में लगा हुआ था। घर में जितने सदस्य उतनी राशियां। उनके अनुसार या तो किसी के लिए भी ग्रहण मंगलकारी नहीं और किसी की गणना के अनुसार सभी की पो बारह। अब जिसके लिए ग्रहण मंगलकारी नहीं उसका दिन तो हो गया ख़राब। वह तो उपाए के चक्कर में कई सौ रुपयों पर पानी फेर देगा। जिसके लिए ग्रहण चमत्कारी फायदा देने वाला है, वह कोई काम क्यूँ करने लगा। दोनों ही गए काम से। ना तो बाबाओं का कुछ कुछ बिगड़ा ना न्यूज़ चैनल के संचालकों का। हिन्दूस्तान में ग्रहण पहली बार लगा है क्या? सुना है हिन्दूस्तान तो पुरातन है। यहाँ तो सदियों से ग्रह -नक्षत्रों की खोज,उनके बारे में गहरी से गहरी बात जानने,समझने का काम चलता रहता है। घर के बड़े बुजुर्ग जानते हैं कि ग्रहण के समय क्या करना चाहिए और क्या नहीं। उनको यह सीख न्यूज़ चैनल देख कर नहीं मिली। यह तो हमारे संस्कार हैं। पता नहीं ग्रहण के पीछे लग कर न्यूज़ चैनल वाले क्या संदेश देना चाहते हैं। इसमे कोई शक नहीं कि लोगों में उत्सुकता होती है हर बात को जानने की, उसको निकट से देखने की। किंतु इसका ये मतलब तो नहीं कि उसकी ज्ञान वृद्धि में सहायक होने वाली जिज्ञासा को डर में बदल दिया जाए,उसकी उत्सुकता को आशंका ग्रहण लगा दें। हम तो इतने ज्ञानी नहीं, मगर जो हैं वे तो जानते हैं कि मीडिया का काम लोगों का ज्ञान बढ़ाना,उनको सूचना देना,घटनाओं से अवगत करवाने के साथ साथ उनको जागरूक करना है। यहाँ तो आजकल कुछ और ही हो रहा है। ज्योतिषी,वास्तु एक्सपर्ट,बाबा अपनी दुकान इन न्यूज़ चैनल के माध्यम से चलाते है। जो इनके संपर्क में आते हैं उनका तो मालूम नहीं, हाँ ये जरुर फल फूल रहें हैं। ग्रहण ने सभी खबरों में ग्रहण लगा दिया। देश के कितने हिस्सों में लोग किस प्रकार जी रहें हैं?उनकी जिंदगी पर लगा महंगाई का ग्रहण ना तो उनको जीने दे रहा है ना मरने। कितने ही बड़े इलाके में पानी ना होने के कारण खेती संकट में पड़ी है। खेती नहीं हुई तो इन इलाकों की अर्थ व्यवस्था चौपट हो सकती है। उसके बाद वहां होगा अराजकता का राज। भूखे लोग क्या करेंगें? सरकार अपने अधिकारियों ,मंत्रियों,सांसदों,विधायकों का पेट और घर भरेगी या इनका? खैर फिलहाल तो आप और हम ग्रहण और उसका असर देखेंगें। आख़िर ऐसा ग्रहण हमको इस जिंदगी में दुबारा तो देखने को मिलने से रहा।
Friday, July 17, 2009
एक हिन्दुस्तानिकी ललकार, फिर एक बार !
कुछ अरसा पहले लिखी गई कवितायें, यहाँ पेश कर रही हूँ। एक ऑनलाइन चर्चामे भाग लेते हुए, जवाब के तौरपर ये लिख दी गयीं थीं। इनमे न कोई संपादन है न, न इन्हें पहले किसी कापी मे लिखा गया था...कापीमे लिखा, लेकिन पोस्ट कर देनेके बाद।
एक श्रृंखला के तौरपे सादर हुई थीं, जिस क्रम मे उत्तर दिए थे, उसी क्रम मे यहाँ इन्हें पेश कर रही हूँ। मुझे ये समयकी माँग, दरकार लग रही है।
१)किस नतीजेपे पोहोंचे?
बुतपरस्तीसे हमें गिला,
सजदेसे हमें शिकवा,
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
वोभी तय करनेमे गुज़ारे !
आख़िर किस नतीजेपे पोहोंचे?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...
फ़सादोंमे ना हिंदू मरे
ना मुसलमाँ ही मरे,
वो तो इंसान थे जो मरे!
उन्हें तो मौतने बचाया
वरना ज़िंदगी, ज़िंदगी है,
क्या हश्र कर रही है
हमारा,हम जो बच गए?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...
देखती हमारीही आँखें,
ख़ुद हमाराही तमाशा,
बनती हैं खुदही तमाशाई
हमारेही सामने ....!
खुलती नही अपनी आँखें,
हैं ये जबकि बंद होनेपे!
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
सिर्फ़ चार दिन मिले..!
२) खता किसने की?
खता किसने की?
इलज़ाम किसपे लगे?
सज़ा किसको मिली?
गडे मुर्दोंको गडाही छोडो,
लोगों, थोडा तो आगे बढो !
छोडो, शिकवोंको पीछे छोडो,
लोगों , आगे बढो, आगे बढो !
क्या मर गए सब इन्सां ?
बच गए सिर्फ़ हिंदू या मुसलमाँ ?
किसने हमें तकसीम किया?
किसने हमें गुमराह किया?
आओ, इसी वक़्त मिटाओ,
दूरियाँ और ना बढाओ !
चलो हाथ मिलाओ,
आगे बढो, लोगों , आगे बढो !
सब मिलके नयी दुनिया
फिर एकबार बसाओ !
प्यारा-सा हिन्दोस्ताँ
यारों दोबारा बनाओ !
सर मेरा हाज़िर हो ,
झेलने उट्ठे खंजरको,
वतन पे आँच क्यों हो?
बढो, लोगों आगे बढो!
हमारी अर्थीभी जब उठे,
कहनेवाले ये न कहें,
ये हिंदू बिदा ले रहा,
इधर देखो, इधर देखो
ना कहें मुसलमाँ
जा रहा, कोई इधर देखो,
ज़रा इधर देखो,
लोगों, आगे बढो, आगे बढो !
हरसूँ एकही आवाज़ हो
एकही आवाज़मे कहो,
एक इन्सां जा रहा, देखो,
गीता पढो, या न पढो,
कोई फ़र्क नही, फ़ातेहा भी ,
पढो, या ना पढो,
लोगों, आगे बढो,
वंदे मातरम की आवाज़को
इसतरहा बुलंद करो
के मुर्दाभी सुन सके,
मय्यत मे सुकूँ पा सके!
बेहराभी सुन सके,
तुम इस तरहाँ गाओ
आगे बढो, लोगों आगे बढो!
कोई रहे ना रहे,
पर ये गीत अमर रहे,
भारत सलामत रहे
भारती सलामत रहें,
मेरी साँसें लेलो,
पर दुआ करो,
मेरी दुआ क़ुबूल हो,
इसलिए दुआ करो !
तुम ऐसा कुछ करो,
लोगों आगे बढो, आगे बढो!!
३)एक ललकार माँ की !
उठाये तो सही,
मेरे घरकी तरफ़
अपनी बद नज़र कोई,
इन हाथोंमे गर
खनकते कंगन सजे,
तो ये तलवारसेभी,
तारीख़ गवाह है,
हर वक़्त वाकिफ़ रहे !
इशारा समझो इसे
या ऐलाने जंग सही,
सजा काजलभी मेरी,
इन आँखोमे , फिरभी,
याद रहे, अंगारेभी
ये जमके बरसातीं रहीं
जब, जब ज़रूरत पड़ी
आवाज़ खामोशीकी सुनायी,
तुम्हें देती जो नही,
तो फिर ललकार ही
सुनो, पर कान खोलके
इंसानियत के दुश्मनों
हदमे रहो अपनी !
चूड़ियाँ टूटी कभी,
पर मेरी कलाई नही,
सीता सावित्री हुई,
तो साथ चान्दबीबी,
झाँसीकी रानीभी बनी,
अबला मानते हो मुझे,
आती है लबपे हँसी!!
मुझसे बढ़के है सबला कोई?
लाजसे गर झुकी,
चंचल चितवन मेरी,
मत समझो मुझे,
नज़र आता नही !
मेरे आशियाँ मे रहे,
और छेद करे है,
कोई थालीमे मेरी ,
हरगिज़ बर्दाश्त नही!!
खानेमे नमक के बदले
मिला सकती हूँ विषभी!
कहना है तो कह लो,
तुम मुझे चंचल हिरनी,
भूल ना जाना, हूँ बन सकती,
दहाड़ने वाली शेरनीभी !
जिस आवाज़ने लोरी,
गा गा के सुनायी,
मैं हूँ वो माँ भी,
संतानको सताओ तो सही,
चीरके रख दूँगी,
लहुलुहान सीने कई !!
छुपके वार करते हो,
तुमसे बढ़के डरपोक
दुनियामे है दूसरा कोई?
प्रस्तुतकर्ता Shama पर 8:36 AM
Wednesday, July 15, 2009
लो क सं घ र्ष !: औसत का खेल
मुझे इस बात का जरा भी भान न था कि मैं अपने लिए एक मोटरसाइकल नहीं, एक नई मुसीबत मोल ले रहा हूं। खैर, जो होना था सो हो गया। यह हम जैसे आम आदमी का मूलमंत्र है। मोटरसाइकल मैंने अपनी सहुलियत के लिए ली थी। कही आने-जाने में आसानी होती। समय की बचत सो अलग। मोटरसाइकल पर बैठ कर मेरी गतिशीलता में वृद्धि होती। इन सब बातों को मद्देनजर रखते हुए, मैंने एक मोटसाइकल खरीदी। अभी उसे ले कर घर आता नहीं हूं कि मेरे पड़ोसी पूछ उठाते हैं,‘‘ कितने का एवरेज कंपनी वाले क्लेम कर रहे है।’’ पड़ोसी का मतलब गाड़ी के माइलेज से था। उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा,‘‘ कंपनी वाले जितना बताए उससे दस-बीस किलोमीटर कम मान कर चलना चाहिए, भाईसाहब।’’ पहले दिन से ही यह सवाल ‘ क्या एवरेज दे रही है!’ मेरे पीछे लग गया। मैं जहाँ जाता, यह सवाल मुझसे टकरा जाता। कभी सीधे-सीधे , तो कभी एक लंबी भूमिका के बाद। कभी यह मेरी गाड़ी के पीछे-पीछे आता, तो कभी मुझसे पहले ही पहुंच जाता। गाड़ी लेने के बाद शायद ही कोई दिन ऐसा बीता हो जब यह सवाल ‘ क्या एवरेज दे रही है ’ मुझ पर न दागा गया हो। मेरा जवाब सिर्फ इतना होता,‘‘पता नहीं’’। मेरा जवाब सुनकर लोग मुझ पर शक करते। जबकि मैं अपने जानिब उन्हें सही कहता । कुछ दिन बाद मेरी हालत यह हो गई, जैसे ही कोई ‘ क्या एवरेज दे रही है ’ पूछता, मुझे सांप सूंघ जाता। गाड़ी चलाने को मजा फुर्र हो जाता। नई-नई गाड़ी लाने के उत्साह के समंदर को, यह सवाल एक पल में खाली कर देता। आखिर,, मैंने ठान लिया कि गाड़ी का एवरेज पता करके छोडूंगा। फिर शुरू हुआ मेरा एवरेज पता लगाने का एक अंतहीन सिलसिला। जिसने मेरी मानसिक शांति को हर लिया। गाड़ी में कितना पेट्रोल है ! गाड़ी कितने किलोमीटर चली ! कल कितने का एवरेज दिया ! आज कितने का एवरेज है ! एक-एक बात का, मैं हिसाब रखने लगा। गाड़ी जब अधिक एवरेज देती, तो खुशी का ठिकाना न रहता। मगर अगले दिन का कम एवरेज मेरे कल की खुशी को ठिकाने लगा देता। एवरेज कम आने पर पेट्रोल की गुणवत्ता कभी मेरे निशाने पर होती, तो कभी शहर का टैªफिक। एवरेज कम आने के कारणों में भिन्नता हो सकती थी, मगर एवरेज अधिक आने का सारा श्रेय सिर्फ और सिर्फ मेरी गाड़ी चलाने की कुशलता को जाता। उन दिनों मेरी हालत देखकर आप मुझे एवरेज का मारा कह सकते थे। एवरेज यानी औसत। इस शब्द ने पहले कभी मेरा घ्यान नहीं खींचा था। मोटरसाइकिल लेने के बाद औसत को लेकर मैं बुरी तरह से उलझ गया। हालांकि मोटरसाइकिल से मेरा स्नेह बराबर बना रहा, मगर औसत ने मुझे मजबूर कर दिया कि मैं उसके बारे में कुछ सोचूं। कुछ सवाल मेरे जहन में उठने लगे। मसलन, इसकी उत्पति कैसे हुई ! अविष्कारक कौन है ! औसत प्रचलन में कैसे आया ! औसत मुझे बड़ा ही चमत्कारी लगा, जब इसके विषय में मैं सोचने लगा। आखिर क्यों, नितिनियंता इस एक शब्द का काफी इस्तेमाल करते हैं। मैंने इसके उत्पति के बारे में कल्पना की; -
बहुत समय पहले, किसी राज्य में एक राजा राज करता था। जो निरंकुश और विलासी था। प्रजा की भलाई छोड़, वो सुरा-सुंदरी में डूबा रहता। राज्य का सारा कार्यभार उसके कुछ चापलूस मंत्री चलाते । राजा की अकर्मण्यता और उदासीनता के चलते प्रजा की हालत दयनीय हो गई। जब स्थिति असहनीस हो गई, तब प्रजा ने विद्रोह कर दिया। उसने चारों तरफ से महल को घेर लिया। तब राजा ने घबराकर अपने मंत्रियों से अपातकालीन मंत्रणा की। राजा ने बदहवाशी में अपने मंत्रियों से कहा,‘‘ ऐसा कोई उपाय निकालो जिससे यह आसन्न संकट टल जाए। नहीं तो आज हम सब मारे जाएंगे। अगर प्रजा ने महल पर कब्जा करने की ठान ली, तो उसको हमारी सेना भी नहीं रोक पाएंगी।’’ तभी एक बूढा मंत्री मुस्कुराया। उसने कुछ सोच लिया था। वो राजा से बोला,‘‘ महाराज, आप चिंता न करें। मैंने एक ऐसा उपाय निकाला है कि प्रजा उल्टे पांव लौट जाएंगी।’’ राजा को सहसा विश्वास नहीं हुआ। परन्तु बूढे़ मंत्री के कहने पर, वो महल के बाहर आया। उसने देखा कि प्रजा नारे लगा रही, ‘ हम भूखे है हमंे रोटी दो !’ ‘हम नंगे है हमे कपडे़ दो !’ बूढ़ा मंत्री बोला, ‘‘भूखे हो तो रोटी खाओ। नंगे हो तो कपड़े मोल लो।’’ इस पर प्रजा चिल्लाई,‘‘ हम कहां से खरीदे ! हमारे पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं है।’’ तभी बूढ़े मंत्री ने एक कागज का टुकड़ा निकाला और बोला,‘‘झूठ बोलते हो तुम सब, यह देखो इस कागज पर स्पष्ट लिखा है कि राज्य के प्रत्येक व्यक्ति के पास दस सोने के मोहरे है।’’ प्रजा अचरज में पड़ गयी। भला ये कैसे हो सकता है ! बूढ़ा मंत्री न जाने क्या बक रहा है ! प्रजा अभी कुछ कहती कि बूढ़ा मंत्री बोला,‘‘ इघर देखो, अभी मैं तुम सब को कुछ दिखाता हूं।’’ तब उसने राजकोष में जमा कुल मोहरों में राज्य की समस्त प्रजा से भाग दे दिया। चमत्कार ! सबके हिस्से में दस-दस मोहरंे आ गई। हिस्सेदारों में मंत्रियों के साथ राजा भी शामिल था।‘‘ मगर वो मोहरें हमें नहीं दिखती ! वो मोहरें है कहां!’’ प्रजा ने बूढे़ मंत्री से कहा। ‘‘ तुम सब के दिखने न दिखने से क्या होता है ! कागज पर तो दिख रही है न! अब सारे यहां से भाग जाओ , नहीं तो हाथियों से कुचलवा दूंगा।’’ बूढ़ा मंत्री गरजा। कागज में तो सबके हिस्से दस-दस मोहरें दिख रही थी। यह देख, प्रजा भुनभुनाते हुए लौट गई। तब बूढे़ मंत्री ने राजा से कहा,‘‘ देखा, महाराज औसत का खेल !’’ इस प्रकार औसत ने प्रजा के अंसतोष को असंमजस में डाल दिया और राजा का सिंहासन सुरक्षित रखा। तभी से औसत प्रचलन में आ गया और आज भी औसत हमारे निति नियंताओं का प्रिय बनकर उनके गोद में बैठा हुआ हैं।
अनूप मणि त्रिपाठी
ई- 5003 , सेक्टर - 12
राजाजी पुरम,लखनऊ
मो. न. 09956789394
Monday, July 13, 2009
पत्रकारिता का नया स्टाइल
देश-विदेश के किसी और स्थान का तो मालूम नहीं लेकिन श्रीगंगानगर में पत्रकारिता का नया स्टाइल शुरू हो चुका है। स्टाइल अच्छा है या बुरा,सही है या ग़लत,गरिमा युक्त है या नहीं,इस बारे में टिप्पणी करने के लिए यह नहीं लिखा जा रहा। जब कहीं किसी नगर या महानगर में कोई फैशन आरम्भ होता है तो उसकी जानकारी दुनिया में पहुँच जाती है, पहुंचाई जाती है। बस, इसी मकसद से यह पोस्ट है। अरे नहीं भाई, हम पत्रकारिता को फैशन के समकक्ष नहीं रख रहे। हम तो केवल बता रहें हैं कि हमारे नगर में क्या हो रहा है। हम इस बात पर गर्व करते हैं कि हमारे शहर में एक दर्जन अखबार निकलते हैं,पूरी शानो-शौकत के साथ। इसके साथ अब स्कूल,कॉलेज,हॉस्पिटल जैसे कारोबार से जुड़े लोगों ने भी अपने अपने साप्ताहिक,पाक्षिक,मासिक अख़बार निकालने शुरू कर दिए हैं। इन अख़बारों में अपने संस्थान की उपलब्धियों का जिक्र इन मालिकों द्वारा किया जाता है। मतलब अपने कारोबार के प्रचार का आसन तरीका। स्कूल वाले अपने स्कूल के बच्चों की पब्लिसिटी करेंगें। हॉस्पिटल संचालक डॉक्टर द्वारा किए इलाज की। बीजवाला अपने खेत या प्लांट में तैयार किए गए बीज के बारे में बतायेंगें। जिन के पास अख़बार को संभालने वाले व्यक्ति होते हैं वे अपने स्तर पर इसको तैयार करवाते हैं। अन्य किसी पत्रकार की पार्ट टाइम सेवा ले लेता है। हालाँकि इन अख़बारों को अन्य अख़बारों की भांति बेचा नहीं जाता। ये सम्भव है कि स्कूल संचालक अख़बार की कीमत,टोकन मनी, फीस के साथ ले लेते हों। ये अखबार बिक्री के लिए होते ही नहीं। हाँ, स्कूल का अखबार जब बच्चे के साथ घर आएगा तो अभिभावक उसको देखेंगें ही। बच्चे की फोटो होगी तो उसको अन्य को भी दिखाएंगें,बतायेंगें। अब,जब अखबार है तो उसके लिए वही सब ओपचारिकता पूरी करनी होती हैं जो बाकी अख़बार वाले करते हैं। जब,सब ओपचारिकता पूरी करनी हैं तो फ़िर वह कारोबारी अपनी महंगी,सस्ती कार पर भी प्रेस लिखने का "अधिकारी" तो हो ही गया। बेशक इस प्रेस का दुरूपयोग ना होता हो, लेकिन प्रेस तो प्रेस है भाई। श्रीगंगानगर में यह स्टाइल उसी प्रकार बढ़ रहा है जैसे शिक्षा और चिकत्सा का कारोबार।
Sunday, July 12, 2009
विलाप के बीच सम्मान की खुशी
पड़ौस में गम हो तो खुशी छिपानी पड़ती है। स्कूल में कोई हादसा हो जाए तो बच्चों की मासूमियत पर ब्रेक लग जाता है। गाँव में शोक हो तो घरों में चूल्हे नहीं जलते। नगर में बड़ी आपदा आ जाए तो सन्नाटा दिखेगा। यह सब किसी के डर,दवाब या दिखावे के लिए नहीं होता। यह हमारे संस्कार और परम्परा है। समस्त संसार हमारा ही कुटुम्ब है, हम तो इस अवधारणा को मानने वाले हैं। इसलिए यहाँ सबके दुःख सुख सांझे हैं। परन्तु सत्ता हाथ में आते ही कुछ लोग इस अवधारणा को ठोकर मार देते हैं। अपने आप को इश्वर के समकक्ष मान कर व्यवहार करने लगते हैं।श्रीगंगानगर,हनुमानगढ़ में आजकल बिजली और पानी के लिए त्राहि त्राहि मची हुई है। खेतों में खड़ी फसल बिन पानी के जल रही है। नगरों में बिजली के बिना कारोबार चौपट होने को है। कोई भी ऐसा वर्ग नहीं जो आज त्राहि माम,त्राहि माम ना कर रहा हो। त्राहि माम के इस विलाप को नजर अंदाज कर हमारे सांसद भरत राम मेघवाल अपने स्वागत सत्कार,सम्मान करवाने में व्यस्त हैं। एक एक दिन में गाँव से लेकर नगर तक कई सम्मान समारोह में वे फूल मालाएं पहन कर गदगद होते हैं।सम्मान पाने का अधिकार उनका हो सकता है। किंतु ऐसे वक्त में जब चारों ओर जनता हा हा कार कर रही हो, तब क्या यह सब करना और करवाना उचित है?सांसद महोदय, प्रोपर्टी और शेयर बाज़ार ने तो पहले ही लोगों की हालत बाद से बदतर कर रखी है। अगर खेती नहीं हुई तो खेती प्रधान इस इलाके में लोगों के पास कुछ नहीं बचेगा।
Friday, July 10, 2009
ईमानदार और शराफत का क्या करें
ईमानदारी और शराफत, ये भारी भरकम शब्द आजकल केवल किताबों की शोभा के लिए ही ठीक हैं। ईमानदारी और शराफत के साथ कोई जी नहीं सकता। कदम कदम पर उसको प्रताड़ना और अभावों का सामना करना पड़ेगा। इनका बोझ ढोने वालों के बच्चे भी उनसे संतुष्ट नहीं होते। ईमानदार और शरीफ लोगों की तारीफ तो सभी करेंगें लेकिन कोई घास नहीं डालता। ईमानदार और शरीफ को कोई ऐसा तमगा भी नहीं मिलता जिसको बेच कर वह एक समय का भोजन कर सके। दुनियादारी टेढी हो गई, आँख टेढी करो,सब आपको सलाम करेंगें। वरना आँख चुरा कर निकल जायेंगें।
लो जी, एक कहानी कहता हूँ। एक निहायत ही ईमानदार और शरीफ आदमी को प्रजा ने राजा बना दिया। जन जन को लगा कि अब राम राज्य होगा। किसी के साथ अन्याय नहीं होगा। राज के कर्मचारी,अफसर जनता की बात सुनेगें। दफ्तरों में उनका आदर मान होगा। पुलिस उनकी सुरक्षा करेगी। कोई जुल्मी होगा तो उसकी ख़बर लेगी। रिश्वत खोरी समाप्त नहीं तो कम से कम जरुर हो जायेगी। परन्तु, हे भगवन! ये क्या हो गया! यहाँ तो सब कुछ उलट-पलट गया। ईमानदार और शरीफ राजा की कोई परवाह ही नही करता। बिना बुलाए कोई कर्मचारी तक उस से मिलने नहीं जाता। राजा के आदेश निर्देश की किसी को कोई चिंता नहीं। अफसर पलट के बताते ही नहीं कि महाराज आपके आदेश निर्देश पर हमने ये किया। लूट का बाजार गर्म हो गया। कई इलाकों में तो जंगल राज के हालत हो गए। किसी की कोई सुनवाई नहीं। पुलिस और प्रशासन के अफसर,कर्मचारी हावी हो गए। जिसको चाहे पकड़ लिया,जिसको चाहे भीड़ के कहने पर अन्दर कर दिया।ख़ुद ही मुकदमा दर्ज कर लेते हैं और ख़ुद ही जाँच करके किसी को जेल भेज देते हैं। राजा को उनके शुभचिंतकों ने बार बार बताया। किंतु स्थिति में बदलाव नही आया। राजा शरीफ और निहायत ईमानदार है। वह किसी अफसर, कर्मचारी को ना तो आँख दिखाता है ना रोब। सालों से खेले खाए अफसर,कर्मचारी ऐसे शरीफ राजा को क्यों भाव देने लगे। उनकी तो मौज बनी है। राजा कुछ कहता नहीं,प्रजा गूंगी है, बोलेगी नहीं। ऐसे में डंडा चल रहा है,माल बन रहा है। उनका तो कुछ बिगड़ना नहीं। पद जाएगा तो राजा का, उनका तो केवल तबादला ही होगा। होता रहेगा,उस से क्या फर्क पड़ेगा। घर तो भर जाएगा।
बताओ,जनता ऐसे राजा का क्या करे? जनता के लिए तो राजा की ईमानदारी और शराफत एक आफत बन कर रह गई। उनकी आशाएं टूट गईं। उम्मीद जाती रही।राम राज्य की कल्पना, कल्पना ही है। राजा की ईमानदारी और शराफत पर उनके दुश्मनों को भी संदेह नहीं,लेकिन इस से काम तो नही चल रहा। राजा ईमानदार और शरीफ रहकर लगाम तो कस सकता है। लगाम का इस्तेमाल ना करने पर तो दुर्घटना होनी ही है
Thursday, July 9, 2009
बुलबुल का घोंसला...!
इस बोनसाय के पेड़ के साथ बडीही मधुर यादगार जुडी हुई है....इस बात को शायद १० साल हो गए...एक दिन सुबह मै अपने इन "बच्चों" के पास आयी तो देखा, इस पेड़ पे बुलबुल घोंसला बना रही थी...!कितने विश्वास के साथ....! इस पँछी का ऐसा विश्वास देख, मेरी आँख नम हो आयी...मैंने रात दिन कड़ी निगरानी राखी...जब तक उस बुलबुल ने अंडे देके बच्चे नही निकाले, मैंने इस पेड़ को बिल्लियों और कव्वों से महफूज़ रखा...! इस परिंदे ने एक बार नही दो बार इसपे अपने घोंसले बनाये...! परिंदे तो उड़ गए, घोंसले यादगार की तौरपे मेरे पास हैं! इसी पेड़ पे रखे हुए नज़र आते हैं, गर गौरसे देखा जाय तो...! लेकिन उन घोंसलों की अलग से एक तस्वीर कभी ना कभी ज़रूर पोस्ट करूँगी...! इस पोस्ट को नाम देने का दिल करता है सो ये," मेरे घर आना ज़िंदगी..!".....कई बार आना ज़िंदगी....मेरे अपने पँछी तो उड़ गए...दूर, दूर घोंसले बना लिए...लेकिन परिंदों, तुम आते रहना .....अपने घोंसले बनाते रहना...वादा रहा...इन्हें मेरे जीते जी, महफूज़ रखूँगी...!
Wednesday, July 8, 2009
बढ़ रही है भारत मे डायबिटीज़ के मरीज़ो की संख्या
दुनिया भर में हर दस सेकेंड में किसी न किसी की डायबिटीज़ यानी मधुमेह से मृत्यु हो जाती है। उन्हीं दस सेकेंड में किन्हीं दो लोगों में इसके लक्षण पैदा हो जाते हैं। पिछले साल दुनिया में इस बीमारी से मरने वालों की संख्या 38 लाख थी। यानी मरने वाले सभी लोगों का छह प्रतिशत। एक अनुमान के अनुसार इस समय दुनिया भर में 24 करोड़ 60 लाख लोग डायबिटीज़ से पीड़ित हैं और 2025 तक इस संख्या के 38 करोड़ हो जाने की आशंका है।
हाल ही में चेन्नई में संपन्न हुए दक्षिण-पूर्व एशिया में डायबिटीज़ सम्मेलन में प्रमुख स्वास्थ्य विशेषज्ञों, स्वास्थ्य मंत्रियों, दानकर्ताओं और राष्ट्रीय स्वास्थ्य अधिकारियों ने इन्हीं विषयों पर अपनी चिंता का इज़हार किया। सम्मेलन का आयोजन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, वर्ल्ड डायबिटीज़ फ़ाउंडेशन, अंतरराष्ट्रीय डायबिटीज़ फ़ेडेरेशन और विश्व बैंक ने संयुक्त रूप से किया था। सम्मेलन में भारत की स्थिति पर विशेष रूप से चिंता प्रकट की गई क्योंकि भारत में सबसे बड़ी आबादी मधुमेह से पीड़ित है। देश में इस समय डायबिटीज़ के मरीज़ों की संख्या चार करोड़ है जिसके 2025 तक सात करोड़ हो जाने की आशंका व्यक्त की जा रही है।
डायबिटीज़ जानलेवा है लेकिन समय रहते इस पर क़ाबू पाया जा सकता है। जैसे, सम्मेलन में हिस्सा ले रहे पुणे के स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉक्टर चित्तरंजन सकरलाल याज्ञनिक का कहना था कोशिश यह होनी चाहिए कि यह रोग माँ से बच्चे में न जाने पाए। उनका कहना था, "हर लड़की की नियमित जाँच ज़रूरी है। क्योंकि गर्भावस्था में यह रोग माँ से शिशु में बहुत आसानी से प्रविष्ट हो सकता है। सब जानते हैं कि यह आनुवंशिक है। लेकिन इसको नियंत्रित किया जा सकता है"। इसका शरीर के कई अंगों पर असर होता है। दस साल लगातार इस रोग को झेल चुके रोगी की आँखों की रोशनी तो प्रभावित होती है उसके अन्य अंग भी इसकी चपेट में आ सकते हैं।
डायबिटीज़ के रोगी यूँ तो दुनिया भर में फैले हुए हैं लेकिन भारत, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे दक्षिण एशियाई देशों में इनकी संख्या चिंताजनक हद तक बढ़ चुकी है। डायबिटीज़ होने के प्रमुख कारणों में पौष्टिक आहार की कमी और माता या पिता में इसके लक्षण होना तो शामिल हैं। कहते हैं एक बार डायबिटीज़ हो जाने पर उसे नियंत्रित तो किया जा सकता है, पूरी तरह दूर किया जाना अब भी आसान नहीं है। इसीलिए इसका न होना ही अच्छा और यह आपके अपने बस में हैं। (साभार-बीबीसी.कॉम)
Tuesday, July 7, 2009
पल अपना
कितना इंतज़ार ..कितने दिन
और , फिर
कितने पल ... यूँही बिन पँख,
उड़, हवा बन जाए
मौसम बदले, सावन बरसे
रिमज़िम, चाहे फिर अखियों से झरे जाए
क्यों... काहे मन गुनगुनाया जाए
गीत गुंजन खुशियों के हो
या फिर दिल के बातें बोले जाए
फिर लिख-सून मन,
कुछ पल हंस जाए
एक पल अपना फिर यूँही बीत जाए...
कीर्ती वैद्या 07TH JULY 2009
जलवायु परिवर्तन बनेगा सदी की सबसे बड़ी त्रासदी
दुनिया की जानी मानी संस्था ऑक्सफ़ैम का कहना है कि पर्यावरण में हो रहे बदलावों के कारण ऐसी भुखमरी फ़ैल सकती है जो इस सदी की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी साबित होगी। इस अंतरराष्ट्रीय चैरिटी की नई रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण में बदलाव ग़रीबी और विकास से जुड़े हर मुद्दे पर प्रभाव डाल रहा है।
इटली में जी आठ देशों के सम्मेलन से पहले ऑक्सफ़ैम ने धनी देशों के नेताओं से अपील की है कि वो कार्बन उत्सर्जन में कमी करें और ग़रीब देशों की मदद के लिए 150 अरब डॉलर की राशि की व्यवस्था करें। ऑक्सफ़ैम का कहना है जलवायु परिवर्तन के कारण एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीकी देशों में ग़रीब लोग और ग़रीब होते जा रहे हैं। इन देशों में किसानों ने ऑक्सफ़ैम से कहा है कि बरसात का मौसम बदल रहा है जिससे उनको खेती में दिक्कतें हो रही हैं। ये किसान कई पीढ़ियों से खेती के लिए मौसमी बरसात पर ही निर्भर रहे हैं लेकिन अब बदलते मौसम के कारण उन्हें नुकसान हो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार भारत और अफ़्रीकी देशों में बारिश के मौसम में बदलाव के कारण अगले दस वर्षों में मक्के के उत्पादन में पंद्रह प्रतिशत की गिरावट आ सकती है। इतना ही नहीं बढ़ती गर्मी के कारण मलेरिया जैसी बीमारियां फैल रही हैं और उन इलाक़ों में जा रही हैं जहां पहले इस बीमारी के फैलने की संभावनाएं नहीं थीं। मौसम के बारे में सही अनुमान नहीं लग रहे हैं और दुनिया के कई इलाक़ों में अप्रत्याशित तौर पर बाढ़, आंधी तूफ़ान और जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ गई हैं। ऑक्सफ़ैम ने धनी देशों से अपील की है कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए वो निजी तौर पर ज़िम्मेदारी लें और निष्पक्ष तरीके से काम करें ताकि एक मानवीय त्रासदी को रोका जा सके। रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक देशों को अपने कार्बन उत्सर्जन में 2020 तक कम से कम 40 प्रतिशत की गिरावट करनी चाहिए। इतना ही नहीं धनी देशों को ग़रीब देशों की मदद के लिए 150 अरब डॉलर का एक कोष तैयार करना चाहिए ताकि इन देशों को अपना कार्बन उत्सर्जन कम करने और बड़ी चुनौतियों से निपटने में मदद मिले। (साभार-बीबीसी.कॉम)
Friday, July 3, 2009
लो क सं घ र्ष !: लोकसंघर्ष ब्लॉग 15 जुलाई तक बंद रहेगा ...
लोकसंघर्ष ब्लॉग के संचालक "रणधीर सिंह सुमन एडवोकेट" को 28 जून 2009 को एक जन सभा में ह्रदय में अचानक बीमारी ( heart attack) हो जाने के कारण उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के लारी ह्रदय केन्द्र में भर्ती होना पड़ा । २ जुलाई 2009 को लारी ह्रदय केन्द्र से पेस मेकर लगवाकर अस्पताल से बाहर आ गए स्वास्थ ठीक नही है इसलिए लोकसंघर्ष ब्लॉग 15 जुलाई 2009 तक नही लिखा जा सकेगा । जिसके लिए खेद है ॥
सुमन
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