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बहुत मुश्किल है उलझी फूल मालाओं को सुलझाना
श्रीगंगानगर-एक समारोह में फूलों की मालाएँ उलझ गईं।
मन में विचार आया कि रिश्तों और मालाओं में कोई फर्क नहीं है। माला ने जैसे एक
संदेश दिया कि रिश्तों को फूल मालाओं की तरह रखो, तभी ये हर किसी
के गले की शोभा बनेंगे वरना तो उलझ कर टूट जाएंगे। जैसे माला एक दूसरे में उलझ कर टूट जाती हैं।
ऐसा इसलिए हुआ कि मालाएँ गड-मड हो गई। ऊपर नीचे हो गई। बस उलझ गई। जब उलझ गई तो
उनको जल्दबाज़ी में नहीं सुलझाया जा सकता। उलझी मालाओं को सुलझाने के लिए धैर्य और
समझदारी की आवश्यकता होती है। जल्दबाज़ी और झुंझलाने के नहीं। कौनसी माला का धागा
किसमें उलझ गया....किस माला का फूल किस माला के फूल में अटक गया। फिर उनको इधर उधर
से सहजता से निकालना...कभी किस धागे पकड़ना कभी किसी को। किसी को ज़ोर से,खीजे अंदाज में
खींचा तो माला टूट जाएगी....फूल बिखर जाएंगे। टूटी माला किस काम की। रिश्ते भी ऐसे ही होते हैं। एक एक फूल से
माला बनती है तो एक एक मेम्बर से घर । एक माला एक घर। कई घर तो परिवार हो गए। सभी
का अपना महत्व...खास महक...अलग रंग रूप...जुदा मिजाज। ठीक फूलों की तरह। माला की
भांति। रिश्ते भी जब उलझते हैं तो उनको
सुलझाना बड़ी ही मुश्किल का काम होता है। एक घर को खींच के इधर उधर करते हैं हैं तो
वह किसी और में उलझ जाता है। कभी कोई धागा अटका कभी कोई फूल
उलझा। ......बहुत समय लगता है
उलझे रिश्ते सुलझाने में। कई बार तो उलझन ऐसी होती है कि कोई ना कोई “माला” तोड़नी पड़ती
है। तोड़ा किसको जाता है जो सभी से उलझी हो...अब
या तो वह “माला” छोटी हो जाएगी या टूट कर बिखर जाएगी। माली को देखो....वह
कितनी ही मालाओं को सहेज कर रखता है...बंधी
होती हैं सबकी सब एक धागे में। कहीं कोई
उलझन नहीं। वह जानता है मालाओं का मिजाज...उनको बिना उलझाए रखने का ढंग। बस, बड़े परिवारों
में पहले कोई ना कोई मुखिया होता जो अपने सभी घरों को इसी प्रकार रखता था। अपने अनुभव और धैर्य से
वह या तो रिश्तों को उलझने देता ही नहीं था अगर उलझ भी जाते थे तो उसे उनको
सुलझाना आता था बिना कोई “माला” को तोड़े। अब तो सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ बदल गया। ना बड़े
परिवार है ना कोई मुखिया। छोटे छोटे घर हैं..और एक एक घर के कई मुखिया। जब इन घरों
के रिश्ते उलझते हैं तो फिर...फिर मामला बिगड़ जाता है। लोग बात बनाते हैं। जैसे किसी समारोह
में.....अरे मालाएँ
तो उलझ गई....टूट गई...ठीक से नहीं रखा....क्यों होता है ना ऐसा ही। “कचरा” पुस्तक की लाइन है---लबों कों खोल दे,तू कुछ तो बोल
दे....मन की सारी, गाँठे
प्यारी....इक दिन मुझ संग खोल दे.....तू मुझ से बोल रे...... ।
2 comments:
रहिमन धागा प्रेम का मत तोडो चटकाय ।
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