Monday, April 18, 2011
आज कुछ समय पहले ही पता लगा कि फेसबुक पर भी कुछ लोगों का एक ग्रुप है। इस ग्रुप को वह इन्सान पसंद नहीं आता जो इनके लिखे पर आलोचनात्मक टिप्पणी करे। इनमे से एक साहब ने फोन करके अपनी इस भावना से अवगत भी करवाया। ये चाहते थे कि मैं { माफ़ी, मैं लिखने के लिए} वही लिखूं जिसको वो पसंद करे। या जिसको पढ़ कर वे खुश हो जाएं। फेसबुक पर सब लोग अपने भाव लिखते हैं। शब्द,फोटो,वीडियो,टिप्पणी भाव व्यक्त करने का तरीका है। एक पोस्ट पर टिप्पणी की तो उनको पसंद नहीं आई। जबकि मैंने साथ में लिखा था, सॉरी। मैंने अपनी बात कही तो उनको बुरा लगा। अगर आप अपनी या अपने ग्रुप वाले किसी दोस्त की पोस्ट पर आलोचनात्मक टिप्पणी हजम नहीं कर सकते तो फिर ऐसी जगह पर लिखते ही क्यों हैं? मेरे भाव का मकसद किसी का दिल दुखाना नहीं होता। लेकिन यह भी संभव नहीं कि वही लिखा जाये जो उनको पसंद हो। अब मुझे कुछ पसंद नहीं तो इसका ये मतलब नहीं कि मैं फोन करके लिखने वाले से सवाल जवाब करूँ। चलो इसी बहाने लोगों के असली चेहरे तो सामने आये। क्योंकि फेसबुक पर जो थे वे कुछ और थे। आलोचना ना सहन करने वाले निंदा भी गाली देने की स्टाइल में करते हैं। भगवान मुझे हिम्मत देना ऐसे लोगों के फोन सुनने की और फेसबुक पर इनकी गालियाँ पढने की।
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