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Wednesday, September 30, 2009

लो क सं घ र्ष !: हवाला, आतंकवाद और नरेश जैन

राजनीतज्ञ, पुलिस, अपराधी और अफसर के गिरोह भी आतंकवाद को प्रशय देते हैयह बात 5000 करोड़ हवाला के मुख्य अभियुक्त नरेश जैन की गिरफ्तारी के बाद उजागर हुआ है नरेश जैन अंडरवर्ल्ड आतंकवादियो को एक तरफ़ हवाला के माध्यम से धन मुहैया करता था वहीं आतंकवादियों को एजेंट्स को भी धन मुहैया कराने का कार्य कर रहा थाइस कांड को पूर्व 1990 में एस.के जैन की गिरफ्तारी के बाद यह पता चला था की हवाला के माध्यम से हिजबुल मुजाहिद्दीन के आतंकवादियों को धन देता था वहीं शरद यादव से लेकर लाल कृष्ण अडवाणी तक को राजनीति करने के लिए धन उपलब्ध कराता थानरेश जैन के इस प्रकरण को प्रिंट मीडिया ने एक दिन ही प्रकाशित किया और उसके बाद प्रिंट मीडिया खामोश हो गयाहवाला के माध्यम से नरेश जैन और राजनेताओं को आतंकवादियो को तथा ड्रग माफिया को वित्तीय मदद देता था जब बड़े - बड़े राजनेता हवाला के माध्यम से आई हुई रकम लेंगे तो किसी भी इस तरह के बड़े अपराधी के ख़िलाफ़ कोई भी कार्यवाही सम्भव नही हैपरवर्तन निदेशालय ने नरेश जैन को विदेशी मुद्रा प्रबंधन कानून (फेमा) के तहत गिरफ्तार किया है लेकिन इन बड़े अपराधियों और आतंकवादियो की मदद करने वालों के लिए कोई सक्षम कानून नही बनाया गया है और कुछ दिन चर्चा होने के बाद मामले को ठंङे बसते में डाल दिया जाता है और पैरवी के अभाव में अपराधी छूट जाता हैयहाँ एक विचारणीय प्रश्न यह भी है कि इस तरह का अभियुक्त मुस्लिम अल्पसंख्यक होता तो हिन्दुवत्व के पैरोकार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक चीख चीख कर चिल्लाते और उसे धर्म विशेष से जोड़ कर उस धर्म को भी अपमानित करने का कार्य करतेलेकिन आज वो खामोश क्यों है ? इस समय उनको देश की चिंता भी नही है और आतंकवाद की हैसुमन loksangharsha.blogspot.com

Tuesday, September 29, 2009

लो क सं घ र्ष !: अवध के किसान नेता की गिरफ्तारी पर

"गाँधी जी ने तुंरत माइक संभाल लिया आप लोग शांत रहिये बाबा रामचंद्र की गिरफ्तारी हुई है , जो एक पवित्र घटना है आप उन्हें छुडाने की मांग करें, इस मसले को लेकर जेल जाएँ इससे उन्हें दुःख होगा हमारा रास्ता शान्ति अहिंसा का है, उन्हें छुडाने का बेहतर तरीका यही है कि हम शांतिपूर्वक असहयोग करें " "कमलाकांत त्रिपाठी के 'बेदखल'से "

Monday, September 28, 2009

लो क सं घ र्ष !: चिर मौन हो गई भाषा...

द्वयता से क्षिति का रज कण , अभिशप्त ग्रहण दिनकर सा कोरे षृष्टों पर कालिख , ज्यों अंकित कलंक हिमकर सा सम्पूर्ण शून्य को विषमय, करता है अहम् मनुज का दर्शन सतरंगी कुण्ठित, निष्पादन भाव दनुज का सरिता आँचल में झरने, अम्बुधि संगम लघु आशा जीवन, जीवन- घन संचित, चिर मौन हो गई भाषा -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

इतने राम कहां से लाऊँ....

किस रावण की भुजा उखाडूँ.... किस लंका को आग लगाऊँ। घर घर रावण, घर घर लंका.... इतने राम कहां से लाऊँ।। विजयदशमी की शुभकामनाएं

Sunday, September 27, 2009

लो क सं घ र्ष !: कर्मयोग की फिलॉसफी

"उनका पूरा कर्मयोग सरकारी स्कीमों की फिलॉसफी पर टिका था मुर्गीपालन के लिए ग्रांट मिलने का नियम बना तो उन्होंने मुर्गियां पालने का एलान कर दिया एक दिन उन्होंने कहा कि जाती-पाँति बिलकुल बेकार की चीज है और हर बाभन और चमार एक है यह उन्होंने इसलिए कहा की चमड़ा उद्योग की ग्रांट मिलनेवाली थी चमार देखते ही रह गए और उन्होंने चमड़ा कमाने की ग्रांट लेकर अपने चमड़े को ज्यादा चिकना बनाने में खर्च भी कर डाली...उनका ज्ञान विशद था ग्रांट या कर्ज देनेवाली किसी नई स्कीम के बारे में योजना आयोग के सोचने भर की देरी थी, वे उसके बारे में सब कुछ जान जाते " -श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी से

लो क सं घ र्ष !: मोहित असुरो को कर ले...

अरी ! युक्ति तू शाश्वत , मोहिनी रूप फिर धर ले अमृत देवो को देकर, मोहित असुरो को कर ले बुद्धि कभी, चातुर्य कभी, विधि तू कौशल्य निपुणता युग-तपन शांत करने को, है कैसी आज विवशता कल्याणी शक्ति अमर ते , निज आशा वि्स्तृत कर दो, वातायन स्वस्ति विखेरे , महिमामय करुणा वर दो डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

Saturday, September 26, 2009

लो क सं घ र्ष !: गुस्सा मजहब का गरीबी का

"...मुसलमान ने हिन्दुओं को लूटा है...पर हिन्दू सैकडों वर्ष से इन लोगो को लूटते, निचोड़ते चले आ रहे है, नही तो एक ही जमीन पर रहनेवालों में अमीरी-गरीबी का इतना फरक क्यों होता है? पंजाब की सब जायजाद हिन्दुओं के ही हाथ क्यों चली जाती। गरीब पहले गुस्से में मुसलमान...गुस्सा मजहब का भी है और गरीबी का भी है ।" यशपाल झूठा सच

लो क सं घ र्ष !: विधि के विधान की कारा

तोड़ना नही सम्भव है, विधि के विधान की कारा अपराजेय शक्ति है कलि की, पाकर अवलंब तुम्हारा श्रृंखला कठिन नियमो की, विधना भी मुक्त नही है वरदान कवच से धरणी , अभिशापित है यक्त नही है हो अजेय शक्ति नतमस्तक , पौरुष बल ग्राह्य नही है तप संयम मुक्ति विजय श्री , रोदन ही भाग्य नही है डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल "राही

Friday, September 25, 2009

लो क सं घ र्ष !: तोरे पाकिस्तान का का हाल है ?

"काहे भइया , तोरे पकिस्तान का का हाल है ?" "वह तो बन रहा है ।" " काहे न बनिहे , भैय्या , तूँ कहि रइयो तो जरूर बनिये। बाकी ई गंगौली पकिस्तान में जा रहे कि हिंदुस्तान में रइहे ?" "ई तो हिन्दुस्तान में रहेगी । पकिस्तान में तो सूबा सरहद , पंजाब , सिंध और बंगाल होगा ; और कोशिश कर रहे हम लोग की मुस्लिम यूनिवर्सिटी भी पकिस्तान में हो जाए ।" " गंगौली के वास्ते ना न करियो कोशिश ?" "गंगौली का क्या सवाल है ?" "सवाल न है त हम्में पकिस्तान बनने या न बनने से का ?" " एक इस्लामी हुकूमत बन जाएगी ।" " कहीं इस्लामू है कि हुकुमतै बन जहिए । ऐ भाई, बाप-दादा की कबर हियाँ है, चौक इमामबाडा हियाँ है , खेती-बाडी हियाँ है । हम कौनो बुरबक है की तोरे पकिस्तान जिंदाबाद में फंस जाएँ ।" " अंग्रेजो के जाने के बाद यहाँ हिन्दुओं का राज होगा ।" " हाँ-हाँ , त हुए बा । तू त ऐसा हिंदू कही रहियो जैसे हिन्दुवा सब भुआऊँ है कि काट लीहयन । अरे, ठाकुर कुंवरपाल सिंह त हिन्दुवे रहे। झिंगुरिया हिंदू है। ऐ भाई, ओ परसरमुआ हिंदुए न है की जब शहर में सुन्नी लोग हरमजदगी कीहन कि हम हजरत अली का ताबूत न उठे देंगे , कहो को कि ऊ में शिआ लोग तबर्रा पढ़त है त परसरमुआ उधम मचा दीहन कि ई ताबूत उट्ठी और ऊ ताबूत उठा । तोरे जिन्ना साहब हमारा ताबूत उठवाये न आए !" डॉक्टर राही मासूम रजा के 'आधा गाँव' से

Thursday, September 24, 2009

लो क सं घ र्ष !: मुरली मनोहर जोशी = कपिल सिब्बल

एन.डी. सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने केन्द्रीय विद्यालयों की फीस 4 गुना बढ़ा दी थी , उन्ही के पदचिन्हों पर चलते हुए कपिल सिब्बल ने केन्द्रीय विद्यालयों की फीस 4 गुना बढ़ा दीइस तरह से कक्षा XI के एक छात्र की फीस 800 रुपये प्रतिमाह हो गई हैबाराबंकी केन्द्रीय विद्यालय में प्रधानाचार्य नही हैकक्षा 11 में फिजिक्स , केमिस्ट्री , मैथ्स , इंग्लिश , कंप्यूटर साइंस के विषय है और इन विषयों में से फिजिक्स, मैथ्स , इंग्लिश, कंप्यूटर साइंस के टीचर भाड़े के हैबाराबंकी में अच्छे से अच्छे विद्यालयों की जो फीस है वही फीस केन्द्रीय विद्यालय की हो गई हैविद्यालय में 23-09-2009 से (लगभग सत्र शुरू हुए 3 महीने हो चुके है ) इंग्लिश की पढ़ाई प्रारम्भ हुई है मानव संसाधन विकास मंत्री जी आप उसी तरह काम कर रहे है जिस तरह से मुरली मनोहर जोशी कर रहे थे शिक्षा की गुणवत्ता के ऊपर आप का ध्यान नही हैआप शिक्षा का सरकार के मध्यम से व्यवसाय कर मुनाफा कमाना चाहते हैशिक्षा को शिक्षा बना रहने दीजिये व्यवसाय मत बनाइये और आप इसी तरीके से कार्य करते रहिये जिससे आप के युवराज का प्रधानमंत्री बनने का सपना, सपना ही रह जाएआप माननीय उच्चतम न्यायलय के एडवोकेट रहे है जिनकी फीस लाखो में होती है , उसी हिसाब से आप सोचते है बाराबंकी जनपद , बाढ़ और सूखे से पीड़ित जनपद हैयहाँ के एक एडवोकेट को 30 रुपये में भी काम करना पड़ता है आप अपनी सोच पूरे देश की स्तिथियों के अनुसार रखिये, उचित है लेकिन इसमें आप का कोई दोष नही हैसभी शशि थरूर है जिनको हवाई जहाज में आदमी नही गाय दिखाई देती हैसुमन लोकसंघर्ष

लो क सं घ र्ष !: अभिलाषा के आँचल में...

अभिलाषा के आँचल में , भंडार तृप्ति का भर दो मन-मीन नीर ताल में, पंकिल हो यह वर दो रतिधरा छितिज वर मिलना , आवश्यक सा लगता है या प्रलय प्रकम्पित संसृति, स्वर सुना सुना लगता है ज्वाला का शीतल होना, है व्यर्थ आस चिंतन की शीतलता ज्वालमयी हो, कटु आशा परिवर्तन की डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल "राही"

Wednesday, September 23, 2009

लो क सं घ र्ष !: या आंखों को दे दो भाषा....

सागर को संयम दे दो, या पूरी कर दो आशा भाषा को आँखें दे दो, या आंखों को दे दो भाषा तम तोम बहुत गहरा है, उसमें कोमलता भर दो या फिर प्रकाश कर में, थोडी श्यामलता भर दो अति दीन हीन सी काया, संबंधो की होती जाए काया को कंचन कर दो, परिरम्भ लुटाती जाए डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल "राही"

Monday, September 21, 2009

लो क सं घ र्ष !: कितना सूना जीवन-पथ है ...

तुम बिन लगता जग ही निरर्थ है। कितना सूना जीवन-पथ है। ये सूनी -सूनी राहें, कितनी कंटकमय लगती। ये काली-काली रातें, काली नागिन सी डंसती॥ विह्वल मन कर रहा अनर्थ है । कितना सूना जीवन पथ है। बात निहार थकी ये आँखें , आशाओं के दीप जलाये। कितने निष्ठुर निर्मम ,निर्दय, सपनो में भी तुम न आए ॥ विरह व्यथित ह्रदय की कथा अकथ है कितना सूना जीवन-पथ है॥ जब भी याद तुम्हारी आई नयनो में आंसू भर आए । अंतर्मन की व्यथा सदा ही हम अन्तर में रहे ॥ असहाय वेदना रोक रही साँसों का रथ है। कितना सूना जीवन-पथ है॥ तुम क्या जानोगे प्रिय ! कैसे पल-पल बरसो सम बीते । मधुर मिलन की आशा में, मरके भी रहे हम जीते॥ आंखों में आ बस जाओ यही मनोरथ है । कितना सूना जीवन-पथ है॥ कितना कठोर है यह विछोह विष, प्रियवर हँस कर पीना । कैसे जियें बताओ अब मुश्किल है जीना ॥ जैसे सम्भव नही , शब्द के बिना अर्थ है। कितना सूना जीवन-पथ है॥ खग कुल का यह कलरव , संध्या की सुमधुर बेला । सुरभि-पवन की मंद चल, मौसम अलबेला॥ सब कुछ तुम बिन लग रहा व्यर्थ है। कितना सूना जीवन -पथ है ॥ रूठोगे न कभी ,कहा था, फिर मुझसे क्यों बिलग हो गए। दुनिया के इस भीड़ में प्रिय! न जाने तुम कहाँ खो गए॥ मेरे मन के मीत बता दो तुमको कोटि शपथ है। कितना सूना जीवन पथ है ॥ मोहम्मद जमील शास्त्री

Sunday, September 20, 2009

लो क सं घ र्ष !: ठाकुर का क्रिया-करम

"यह तो पाँच ही हैं मालिक ।" "पाँच, नही, दस हैं। घर जाकर गिनना ।" "नही सरकार, पाँच हैं ।" "एक रुपया नजराने का हुआ कि नही ?" "हाँ , सरकार !" "एक तहरीर का ?" "हाँ, सरकार !" "एक कागद का ?" "हाँ,सरकार !" "एक दस्तूरी का !" "हाँ, सरकार!" "एक सूद का!" "हाँ, सरकार!" "पाँच नगद, दस हुए कि नही?" "हाँ,सरकार ! अब यह पांचो भी मेरी ओर से रख लीजिये ।" "कैसा पागल है ?"
"नही, सरकार , एक रुपया छोटी ठकुराइन का नजराना है, एक रुपया बड़ी ठकुराइन का । एक रुपया छोटी ठकुराइन के पान खाने का, एक बड़ी ठकुराइन के पान खाने को , बाकी बचा एक, वह आपके क्रिया-करम के लिए ।" प्रेमचंद के गोदान से

वकीलों को नारदमुनि का सलाम

एक एडवोकेट की मौत हो गई। अब अन्य एडवोकेट तो यही सोचेगें कि उसके क्लाइंट हमारे पास आ जाएं। यह तब तो और भी अधिक होता है जब मरने वाले वकील के यहाँ कोई ऐसा उत्तराधिकारी नहीं होता जो उसका काम संभाल सके। किन्तू श्रीगंगानगर टैक्स बार संघ अब ऐसा नहीं होने देगा। इसी सप्ताह संघ के मेंबर वकील हनुमान जैन का निधन हो गया। इनके पिता जी भी नहीं है। बेटा वकालत कर रहा है। इस स्थिति में श्री जैन के क्लाइंट इधर उधर हो जाने स्वाभाविक हैं। इस से श्री जैन का पूरा काम समाप्त हो जाने की आशंका थी। टैक्स बार संघ ने बहुत ही दूरदर्शिता पूर्ण निर्णय किया। अब कोई दूसरा वकील वह फाइल नहीं लेगा जो हनुमान जैन के पास थी। संघ श्री जैन के बेटे का कर सलाहाकार के रूप में पंजीयन करवाएगा। संघ की ओर से चार वकील उसके मार्गदर्शन,काम सिखाने,समझाने और क्लाइंट को संतुष्ट करने के लिए हर समय तैयार रहेंगें। जिस से कि कोई क्लाइंट किसी अन्य वकील के पास जाने की न सोचे या उसे दूसरे के पास जाने की जरुरत ना पड़े। इसके बावजूद अगर कोई क्लाइंट अपनी फाइल श्री जैन से लेकर अन्य को देना चाहे,आयकर,बिक्रीकर की रिटर्न भरवाना चाहे तो वकील ऐसा कर देंगे किन्तू उसकी फीस श्री जैन के उत्तराधिकारी उसके बेटे को दी जायेगी। टैक्स बार श्री हनुमान जैन को तो वापिस नहीं ला सकता लेकिन उसने इतना जरुर किया जिस से उनके परिवार को ये ना लगे कि वे इस दुःख की घड़ी में अकेले रह गए। वकील समुदाय उनके साथ खड़ा है। वर्तमान में एक दूसरे को काटने,काम छीनने,नीचा दिखाने की हौड़ लगी है तब कुछ अच्छा होता है, अच्छा करने के प्रयास होते हैं तो उनको सलाम करने को जी चाहता है। नारदमुनि तो टैक्स बार के अध्यक्ष ओ पी कालड़ा,सचिव हितेश मित्तल,संयुक्त सचिव संजय गोयल सहित सभी पदाधिकारियों को बार बार सलाम करता है। उम्मीद है कि उनकी सोच दूर तक जायेगी। देश के दूसरे संघ भी इनसे प्रेरणा लेंगे।

Saturday, September 19, 2009

लो क सं घ र्ष !: तृष्णा विराट आनंदित

तृष्णा विराट आनंदित, है नील व्योम सी फैली मादक मोहक चिर संगिनी, ज्यों तामस वृत्ति विषैली वह जननि पाप पुञ्जों की, फेनिल मणियों की माला उन्मत भ्रमित चंचल, पाकर अंचल की हाला छवि मधुर करे उन्मादित , सम्हालूँगा कहता जाए तम के अनंत सागर में, मन डूबा सा उतराए डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल "राही"

Thursday, September 17, 2009

लो क सं घ र्ष !: सुन मानस स्वर का क्रंदन....

नव पिंगल पराग शतदल, आशा विराग अभिनन्दन। नीरवते कारा तोड़ो, सुन मानस स्वर का क्रंदन॥ माया दिनकर आच्छादित, अन्तस अवशेष तपोवन। मानो निर्धन काया का , अनुसरण अधीर प्रलोभन॥ ये उल्लास मौन आसक्ति भ्रम जीवन दीन अधीर। सुख वैभव प्रकृति त्यागे, मन चाहे कृतिमय नीर॥ डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल "राही"
---- चुटकी---- सोनिया जी ऐसी क्या मज़बूरी है, जो शशि थरूर जरुरी है।

Wednesday, September 16, 2009

आप भी शामिल हों इस अभियान में ...

युवा संवाद ने प्रतिवर्ष की तरह इस साल भी भारतीय युवा की क्रांतिकारी चेतना के प्रतीक शहीद भगत सिंह की जन्मतिथि २७ सितम्बर को युवा दिवस के रूप में मना रहा है। इस के साथ ही हम उनके जन्म दिवस को युवा दिवस घोषित कराने तथा उनके लेखों को पाठ्यक्रम में शामिल कराने की मांग को लेकर हस्ताक्षर अभियान भी चला रहे हैं।

इस अवसर पर हमने '' भगत सिंह ने कहा'' शीर्षक से भगत सिंह के चार लेखों तथा एक पत्र का संकलन भी प्रकाशित किया है। इसमे शामिल लेख हैं - अछूत समस्या, धर्म और हमारा स्वाधीनता संग्राम, इंक़लाब जिंदाबाद का अर्थ तथा विद्यार्थी और राजनीति। साथ ही जेल से लाहौर के छात्र सम्मलेन को भेजा गया उनका पत्र भी इसमे शामिल किया गया है। इसका मूल्य रखा है ५ रूपये। आप इस अभियान में शामिल होना चाहें तो इसे मंगा सकते हैं।

साथ ही २७ तारीख को हम 'देश, देशभक्ति और भगत सिंह ' विषय पर एक खुली बहस का आयोजन कर रहे हैं जिसमे दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रोफेसर संजय मुख्य वक्ता होंगे.

Tuesday, September 15, 2009

लो क सं घ र्ष !: मसीहाई प्रचारक के रूप में मुद्राराक्षस

अपने समकालीन रचनाकारों में मुद्राराक्षस प्रारम्भ से ही चर्चित रहे हैं। कभी अपनी विशिष्ट आदतों के कारण, कभी अपनी हरकतों के कारण तो कभी अपने विवादास्पद लेखन के कारण। अब से एक दशक पूर्व रचना प्रकाशन की दृष्टि से मुद्राराक्षस अपने समकालिक रचनाकारों से भले ही पीछे रहे हों, किन्तु आज की तारीख में वे अपने समकालिक ही नहीं बल्कि वर्तमान हिन्दी साहित्य के लेखकों के बीच रचना प्रकाशन की दृष्टि से और अपने बहुआयामी लेखन के जरिये राष्ट्रीय ही नहीं वरन अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खासे महत्वपूर्ण हैं, जबकि इधर के दशकों में उनका कोई उपन्यास नहीं प्रकाशित हुआ है। वे अपनी कहानियों, आलोचना का समाजशास्त्र, कालातीत संस्मरण तथा धर्मग्रन्थों का पुनर्पाठ के जरिये लगातार चर्चा में हैं। सच पूछो तो वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य पर न तो उनके कद का कोई रचनाकार ठहरता है और न उनका कद्दावर ही। यदि हमें दो चार रचनाकारों के नाम लेने ही हों यथा नामवर सिंह तो वे केवल हिन्दी आलोचना क्षेत्र की प्रतिभा हैं, श्री लाल शुक्ल केवल कथा लेखन के क्षेत्र के हैं, इसी तरह रवीन्द्र कालिया और ज्ञान रंजन आदि एक सीमित विधा के महारथी हैं। जबकि मुद्राराक्षस ने कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और अपने सामाजिक राजनीतिक चिन्तन परक लेखों के जरिये इन सभी क्षेत्रों में एक सार्थक हस्तक्षेप किया है। उनके लेखन ने साहित्य और समाज को खासा आन्दोलित, प्रभावित और परिवर्तित किया है। मुझे नहीं लगता वर्तमान हिन्दी साहित्य में उनके समकक्ष कोई अन्य लेखक पहुँचता हो। इधर के वर्षों में मुद्राराक्षस अपने अखबारी कालम और विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अपने हिन्दू धर्म विरोधी लेखों के कारण सुर्खियों में रहे हैं। जिसकी एक परिणति ‘धर्म ग्रंथों का पुनर्पाठ’ में दिखायी देती है। उनकी वचन बद्धता ईसाई और मुस्लिम धर्म के पुनर्पाठ के प्रति भी है। ईसाई धर्म को लेकर ‘गास्पेलों का पुनर्पाठ’ पुस्तक बाजार में उपलब्ध है और इसका एक अंग्रेजी एडीशन इंग्लैण्ड से भी प्रकाशित हो रहा है। धर्मग्रन्थों का पुनर्पाठ से लेकर गास्पेलों का पुनर्पाठ तक आते-आते मुद्राराक्षस की मुद्रा निरन्तर बदलती गयी है। लगता है इस्लाम धर्म के पुनर्पाठ तक पहुँचते-पहुँचते उनका यह तेवर कहीं मक्खन सा नम होकर उस पर महज पालिश भर न रह जाये। जिन लोगों ने धर्म ग्रंथों का पुनर्पाठ पढ़ा था, सराहा था। विरोध दर्ज कराया था, वे लोग मुद्राराक्षस के तेज तर्रार विवेचन-विश्लेषण, तर्काश्रित मुहावरे, विभिन्न तथ्यों के प्रति उनका बेबाक निजी दृष्टिकोण के कायल हुए बिना न रह सके थे। जिसमें एक खास था-उनका हिन्दू धर्मग्रंथों के प्रति अनुदार, पूर्वाग्रह युक्त हठधर्मी दृष्टिकोण। जिसमें उन्होंने कई बार तथ्यों को तोड़ मरोड़कर अपनी बात सिद्ध करने का प्रयास किया। इन गुणों से आकर्षित होकर जब कोई पाठक ‘गास्पेलों का पुनर्पाठ’ की यात्रा के अन्तिम पड़ाव तक पहुँचता है तो उसे इनमें से बहुत कम गुण इस पुस्तक में मिलते हैं और अन्त तक मुद्राराक्षस ईसाई धर्म का पुनर्पाठ तो कम बल्कि उल्टे मसीहाई प्रचारक की भूमिका में रंगे अवश्य दिखाई देने लगते हैं। यह बौद्धिक चालाकी भूमिका से ही दिखाई देने लगती है। जहाँ उन्होंने लिखा है कि हमारे लिए महत्वपूर्ण यह जानना है कि बाइबिल या कुरआन की बनावट या उनके चरित्र में कोई युद्धोन्मादी या युद्ध के लिए उकसाने वाले तत्व हैं। कहने का मतलब धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ में उन्होंने वेदों से लेकर शंकराचार्य तक के ग्रंथों का आलोचनात्मक अध्ययन किया था जबकि ईसाई और यहूदी धर्म के सन्दर्भ में मुद्राराक्षस ओल्ड टेस्टामेन्ट, न्यू टेस्टामेंट, मैथ्यू, लूक, आर्क और जान गास्पेल्स जैसे ग्रंथों का आलोचनात्मक पाठ न करके उसका सरल रेखीय पाठ कर उसे उद्धृत कर किया है। यहाँ पर वे ईसाई धर्म की उन पुस्तकों पर दृष्टि तक नहीं डालते जिन्होंने ईसा मसीह को विवाहित और सन्तान शुदा बताने के (दा विंची कोड और होली ब्लड होली ग्रेल) दावे प्रस्तुत किये हैं। आखिर उनके प्रति मौन क्यों? स्पष्ट है हम दूसरे धर्मों के ग्रंथों का चाहे जितना अध्ययन करें किन्तु वहाँ पर होते हम एक आउट साइडर ही हैं यही कारण है यह पुस्तक हिन्दी जगत को नहीं लुभा पा रही है। हम एक छोटे से दृष्टान्त से उनकी कुन्द होती आलोचनात्मक दृष्टि को समझ सकते हैं कि वे ईसाइत के प्रति कितने नरम और धर्मभीरू तथा हिन्दू के प्रति किस कदर तीखे तेवर अपनाते हैं। मेरी अविवाहित माँ थी। जीसस का जन्म एक गैर विवाहिता की कोख से हुआ था। जोसेफ ने यह जानकर भी उससे विवाह कर लिया था। ऐसी स्त्रियों के प्रति यहूदी समाज कितना कठोर है, कैसी यातनाएं देता है इसका वे जिक्र तक नहीं करते बल्कि उन्हें तुलना के लिए भारत और राजस्थान याद आता है। जहाँ आज भी जन्म के समय ही लड़कियाँ मौत के घाट उतार दी जाती हैं, किन्तु मेरी का समाज कितना क्रूर था इसके विषय में वे चुप रहते हैं या संकेत भर करते हैं। यहाँ जीसस और कुमारिल भट्ट का प्रसंग देखना दिलचस्प होगा, एक बार जीसस जेरूसलम मंदिर के शिखर पर ले जाये गये और कहा गया-यहाँ से कूदो अगर ईश्वर तुम्हें अपनी हथेली पर रोक लेगा तो हम तुम्हें मान लेंगे। जीसस का जवाब देखें-ईश्वर का इम्तिहान नहीं लिया जाता। इसी तरह कुमारिल भट्ट और बौद्ध विद्वानों की बहस के बाद इसी से मिलता जुलता सवाल कुमारिल भट्ट से किया गया, अगर तुम मानते हो भगवान है तो तुम इस महल के कंगूरे से कूदो और कहो कि भगवान तुम्हें बचा ले। कुमारिल ने चुनौती स्वीकार की और उनके पैर टूट गये। यहाँ मुद्राराक्षस का यह कहना कि कुमारिल अतार्किक और जीसस तार्किक थे। किन्तु विचारणीय बिन्दु यह था कि भगवान तुम्हें बचा ले, यानी की मृत्यु से रक्षा, चुनौती स्वीकार करके भी कुमारिल मरते नहीं जीवित रहते हैं। ऐसे कितने ही प्रसंग मुद्राराक्षस की बौद्धिक प्रतिभा पर सवाल खड़े करते हैं और अन्तिम अध्याय ‘एक निहत्थे का युद्ध’ अत्यन्त संवेदनात्मक होने के साथ उसे एक कहानी का स्वरूप दे दिया है जो अत्यन्त भावनात्मक है। वे जीसस के चमत्कारों पर खुश होते हैं और हिन्दू संतों के चमत्कारों पर आक्रोशित, आखिर क्यों? एक ही वस्तु के प्रति दो दृष्टिकोण अपनाने के चलते मुद्राराक्षस की मुद्रा एक ईसाई प्रचारक के रूप मंे ही अधिक बनती है। -महंत विनयदास मो0 09235574885

Monday, September 14, 2009

अब जिन्ना महेश

ख़बर--केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन राज्य मन्त्री (स्वतन्त्र प्रभार) जयराम रमेश ने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना को करोड़ों हिन्दुओं के आराध्य देव भगवान शंकर के समान बताकर एक और अनावश्यक विवाद तो खड़ा किया ही है, हजारों साल पुरानी भारतीय संस्कृति के अपमान का अक्षम्य अपराध भी किया है। श्री रमेश ने शनिवार को अपनी भोपाल यात्रा के दौरान महात्मा गान्धी की तुलना ब्रह्मा और नेहरूजी की तुलना भगवान विष्णु से कर डाली। ---- चुटकी---- गाँधी ब्रह्मा नेहरू विष्णु जिन्ना महेश, आपका तो भारत रत्न पक्का हुआ जयराम रमेश।

Sunday, September 13, 2009

लो क सं घ र्ष !: क्या मिलन विरह में अन्तर

क्या मिलन विरह में अन्तर, सम्भव जान पड़ते हैं निद्रा संगिनी होती तो, सपने जगते रहते हैं जीवन का सस्वर होना, विधि का वरदान नही है आरोह पतन की सीमा, इतना जग नाम नही है मिट्टी से मिट्टी का तन, मिट्टी में मिट्टी का तन हिमबिंदु निशा अवगुण्ठन, ज्योतित क्षण भर का जीवन डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

साहित्य शिल्पी वार्षिकोत्सव समारोह/ काव्य गोष्ठी/ ब्लॉगर्स महा सम्मेलन

[ रिपोर्ट: सुलभ सतरंगी ] साहित्य शिल्पी वार्षिकोत्सव समारोह के उपलक्ष्य में आयोजित काव्य गोष्ठी सह ब्लॉगर्स महा सम्मेलन:
शनिवार 12-सितम्बर-2009 को माडर्न स्कूल सेक्टर -17 फरीदाबाद में पहली बार ब्लोग्गर्स स्नेह महासम्मलेन आयोजित किया गया। अवसर था साहित्याशिल्पी का प्रथम वार्षिक समारोह. कार्यक्रम के शुरुवात में श्री राजिव रंजन प्रसाद द्वारा साहित्याशिल्पी के एक वर्ष लघु सफ़र का जीवंत प्रस्तुतीकरण उपस्थित अतिथियों एवं ब्लोग्गर्स सदस्यों के समक्ष किया गया. इस पर एक काव्य गोष्ठी एवं इन्टरनेट पर साहित्य व ब्लॉग के उभरते आयामों पर घंटो परिचर्चा चलती रही.
मुख्य अतिथि: प्रसिद्ध लेखक और व्यंग्यकार ड़ॉ प्रेम जनमेजय जी
योगेन्द्र मौदगिल जी एवं श्री जे. के. कुन्द्रा जी
उपस्थित अतिथियों तथा साथियों में अविनाश वाचस्पति, अभिषेक सागर, अजय यादव, शेफाली पाण्डेय, विनीत कुमार, अरूण अरोरा, रितु रंजन, पवन चंदन, अजय कुमार झा, विनोद कुमार पाण्डेय, राजीव तनेजा, सुनीता शानू, अमन दलाल, इरशाद अली, विनीत कुमार, पुष्कर पुष्प, सुरेश यादव, खुशदीप सहगल, सुलभ सतरंगी, संजू तनेजा, विनोद कुमार पांडेय, नमिता राकेश, योगेश समदर्शी, शोभा महेन्द्रू, रचना सागर, सविता रंजन, वीरेन्द्र कंवर, विकेश बेनीवाल, अनिल बेताब, डॉ. वेद व्यथित, अब्दुल रहमान मंसूर, बागी चाचा, तन्हा् सागर, क्षिप्रा पांडेय, मीनाक्षी जिजीविषा आदि प्रमुख थे। विस्तृत रिपोर्ट यहाँ है - http://www.sahityashilpi.com/2009/09/blog-post_13.html धन्यवाद!

रॉकेट से हमला

---- चुटकी---- पाक ने भारत पर रॉकेट दागे, धन्य हमारे नेता, जो फ़िर भी नहीं जागे।

Saturday, September 12, 2009

लो क सं घ र्ष !: स्मृति शेष: घुपती हृदय में बल्लम सी जिसकी बात, उसे गपला ले गयी कलमुँही रात -02

प्रमोद उपाध्याय इस तथाकथित लोकतंत्र के बारे में भी ख़ूब सोचते और बातें करते थे। उनके पास बैंठे तो वे लोकतंत्र की ऐसी-ऐसी पोल खोलते थे कि मन दुखी हो जाता और देश के राजनेताओं को जूते मारने की इच्छा होने लगती। प्रमोद जी बार-बार लोकतंत्र में जनता और सत्ता के बीच फैलती खाई की तरफ इशारा करते। उन्हीं के शब्दों में कहें तो-लोकतंत्र की बानगी देते हैं हुक्काम/टेबुल पर रख हड्डियाँ दीवारों पर चाम। ख़ुद मास्टर थे, लेकिन शिक्षा व्यवस्था पर टिप्पणी कुछ यो करते- नई-नई तालीम में, सींचे गये बबूल बस्तों में ठूसे गये, मंदिर या स्कूल जब 1992 में बाबरी को ढहाया गया। प्रमोद जी ऐसे बिलख रहे थे जैसे किसी ने उनका झोपड़ा तोड़ दिया, जबकि प्रमोद जी न मंदिर जाते, न मस्जिद। प्रमोद जी ने साम्प्रदायिकता फैलाने वालों को मौखिक रूप से जितनी गालियाँ बकीं, वो तो बकीं ही, पर साम्प्रदायिक राजनीति पर अपनी रचनाओं में जी भर कटाक्ष भी किया। देखिए एक बानगी- रामलला ओ बाबरी, अल्ला ओ भगवान भूखे जन से पूछिये, इनमें से कौन महान दीवारों पर टाँगना, ईसा सा इंसान यही सोचकर रह गईं, दीवारें सुनसान और एक शेर है कि- ख़ुदगर्जों का बढ़ा काफिला, क़ौम धरम को उकसाकर मोहरों से मोहरें लड़वाना इनका है ईमान मियाँ। प्रमोद जी का जाना केवल देवास के लिखने पढ़ने वालों, उनके क़रीबी साथियों और परिवार के लोगों को ही नहीं सालेगा, बल्कि उनको भी सालेगा, जिन्हें प्रमोद जी गालियाँ बकते थे, जिनमें से एक मैं भी हूँ मैं उनसे पैतीस किलो मीटर दूर इन्दौर में रहता हूँ। लेकिन मुझे नियमित रूप से सप्ताह में दो तीन बार फोन लगाते और कभी दस मिनट, कभी आधे घण्टे तक बातें करते, बातों में चालीस फीसदी गालियाँ होतीं। जब मैं उनसे पूछता-सर, आप मुझे गाली क्यों बक रहे हो? हर बार उनके पास कोई न कोई कारण होता और मैं फिर अपनी किसी भूल-ग़लती पर विचार करता। प्रमोद जी पिछले दो-तीन सालों से अपनी आँखों की पूर्ण रूप से रोशनी खो बैठे थे। मेरी कोई कहानी छपती तो वे बहादुर या किसी और मित्र से पाठ करने को कहते। वे कहानी का पाठ सुनते। सुनते-सुनते अगर कोई बात खटक जाती, तो पाठ रूकवा देते और बहादुर से कहते उसे फोन लगा। फोन पर तमाम गालियाँ देते और कहते-अगली बार ऐसी ग़लती की तो बीच चैराहे पर ‘पनही’ मारूँगा, मुझे बेबस ‘बोंदा बा’ मत समझना। कहानी में कोई बात बेहद पंसद आ जाती तो भी पाठ रुकवा देते। फिर फ़ोन पर गालियाँ देते और कहते- सत्तू .... मुझे तुझसे जलन हो रही है, इतनी अच्छी बात कही इस कहानी में। मैं शरीर से लाचार न होता, तो मैं तुझसे होड़ाजीबी करता। मेरे बाप ने या मेरे किसी दुश्मन ने भी मुझे इतनी गालियाँ नहीं बकी, जितनी प्रमोदजी ने बकी। वे उन गालियों में मुझे कितने मुहावरे, कहावते और कितना कुछ दे गये। लेकिन वह खोड़ली कलमुँही रात सई साँझ से ही मौक़े की ताक में काट रही थी चक्कर। और फिर जैसे साँझ को द्वार पर ढुक्की लगाकर बैठ जाती है भूखी काली कुतरी। बैठ गयी थी वह, और मौक़ा पाते ही क़रीब पौने बारह बजे लेकर खिसक ली। उसने जाने किस बैर का बदला लिया। उनकी गालियाँ सुनने की लत पड़ गयी थी मुझे। लेकिन अब मुझे गाली ही कौन देगा...? प्रमोद जी को भीगी आँखें और धूजते हृदय से श्रद्धांजलि। प्रमोद उपाध्यायजी की स्मृति में सत्यनारायण पटेल की रचनाः- सच के एवज में अपरिपक्व और भ्रष्ट लोकतंत्र में झूठ को सच का जामा पहनाने को कच्ची-पक्की राजनीतिक चेतना से सम्पन्न होते हैं इस्तेमाल सदा सच के खिलाफ़ जैसे भूख और हक़ के पक्ष में लड़ने और जीवन दाँव पर लगाने वालों के विरूद्ध सलवा जुडूम जैसे भूख से मरे आदिवासियों का सवाल पूछने पर आपरेशन लालगढ़ जैसे काँचली आये लम्बे साँप की भूख निगलने लगती अपनी ही पूँछ कभी-कभी प्रगतिशील गीत गाने वाले संगठन का मुखिया भी बन जाता है हिटलर का नाती जब चुभने लगते हैं उसकी आँख में उसी के कार्यकर्ता के बढ़ते क़दम तब साम्राज्यवाद की नाक पर मुक्का मारने से भी ज्यादा जरूरी हो जाता है कार्यकर्ता को ठिकाने लगाना और जब सार्वजनिक रूप से, क़त्ल किया जाता है कार्यकर्ता शक करने, सवाल पूछने, भ्रष्ट और साम्राज्यवादी दलालों के चेहरे से नक़ाब खींचने के एवज में तब कुछ क़त्ल के पक्ष में चुप-चाप गर्दन हिलाते खड़े रहते हैं कुछ डटकर खड़े हो जाते हैं क़ातिल के सामने मुट्ठियों को भींचे, दाँत पर दाँत पीसते कुछ ख़ुद को चतुरसुजान समझ मौन का घूँघट काढें़ खड़े होते हैं तटस्थ क़त्ल के बाद कुछ ‘हत्यारा कहो या विजेता’ के किस्से सुनाते हैं कुछ क़त्ल होने वाले की हरबोलों की तरह साहस गाथा गाते हैं तब भी चतुर सुजान तटस्थ हो देखते-सुनते हैं वक्त सुनायेगा एक दिन उनकी कायरता के भी क़िस्से। समाप्त सत्यनारायण पटेल, मो0-09826091605
---- चुटकी----- चिदम्बरम ने न्यूयार्क में सीखे सुरक्षा के गुर, भारत आते ही सब के सब हो जाते हैं फुर्र।

Friday, September 11, 2009

लो क सं घ र्ष !: स्मृति शेष: घुपती हृदय में बल्लम सी जिसकी बात, उसे गपला ले गयी कलमुँही रात-01

वह खोड़ली कलमुँही (6 अगस्त 09) रात थी, जब प्रमोद उपाध्याय जी ज़िन्दगी की फटी जेब से चवन्नी की तरह खो गये। प्रमोद जी इतने निश्छल मन थे कि कोई दुश्मन भी कह दे उनसे कि चल प्रमोद.... एक-एक पैग लगा लें, तो चल पड़े उसके साथ। उनकी ज़बान की साफ़गोई के आगे आइना भी पानी भरे। अपने छोटे से देवास में मालवी, हिन्दी के जादुई जानकार। भोले इतने कि एक बच्चा भी गपला ले, फिर सुना है मौत तो लोमड़ी की भी नानी होती है न, गपला ले गयी। प्रमोद जी को जो जानने वाले जानते हैं कि वह अपनी बात कहने के प्रति कितने जिम़्मेदार थे, अगर उन्हें कहना है और किसी मंच पर सभी हिटलर के नातेदार विराजमान हैं, तब भी वह कहे बिना न रहते। कहने का अंदाज और शब्दों की नोक ऐसी होती कि सामने वाले के हृदय में बल्लम-सी घुप जाती। जैसा सोचते वैसा बोलते और लिखते। न बाहर झूठ-साँच, न भीतर कीच-काच। उन्होंने नवगीत, ग़ज़ल, दोहे सभी विधा की रचनाओं में मालवी का ख़ूबसूरत प्रयोग किया है। रचनाओं के विषय चयन और उनका निर्वहन ग़ज़ब का है, उन्हें पढ़ते हुए लगता-जैसे मालवा के बारे में पढ़ नहीं रहे हैं बल्कि मालवा को सांस लेते। निंदाई-गुड़ाई करते, हल-बक्खर हाँकते, दाल-बाफला बनाते-खाते और फिर अलसाकर नीम की छाँव में दोपहरी गालते देख रहें हैं। मालवा के अनेक रंग उनकी रचनाओं में स्थाईभाव के साथ उभरे हैं। यह बिंदास और फक्कड़ गीतकार कइयों को फाँस की तरह सालता रहा है। प्रमोद जी के एक गीत का हिस्सा देखिए- तुमने हमारे चैके चूल्हे पर रखा जबसे क़दम नून से मोहताज बच्चे पेट रह रहकर बजाते आजू बाजू भीड़ उनके और ऊँची मण्डियाँ हैं। सूने खेतों में हम खड़े सहला रहे खुरपी दराँते। देवास जिले के बागली गाँव में एक बामण परिवार में (1950) जन्मे प्रमोद उपाध्याय कभी बामण नहीं बन सके। उनका जीने का सलीका, लोगों से मिलने-जुलने का ढंग, उन्हें रूढ़ीवादी और गाँव में किसानों, मजदूरों को ठगने वाले बामण से सदा भिन्न ही नहीं, बल्कि उनके खिलाफ़ रहा। प्रमोद जी सदा मज़दूरों और ग़रीब किसानों के दुख-दर्द को, हँसी-ख़ुशी को, तीज-त्यौहार को गीत, कविता, दोहे और ग़ज़ल में ढालते रहे। उनके कुछ दोहे पढ़ें- सूखी रोटी ज्वार की काँदा मिरच नून चाट गई पकवान सब थोड़ी सी लहसून फ़सल पक्की है फाग में टेसू से मुख लाल कुछ तो मण्डी में गई, कुछ ले उड़े दलाल क्रमश : -सत्य नारायण पटेल मो0-09826091605

ओसामा रहेगा

---- चुटकी---- जब तक पाक है तब तक रहेगा ओसामा, कुछ भी कर ले भारत चाहे कुछ भी कर ले ओबामा।

Wednesday, September 9, 2009

लो क सं घ र्ष !: मंटो के नाम ख़त

प्यारे बड़े भाई सआदत हसन मंटो साहिब, आदाब, आज सन् 2008 के दूसरे महीने की दस तारीख़ है और मैं आपकी याद में होने वाले सेमिनार में जिसका मौज़ू ‘मंटोः हमारा समकालीन’ रखा गया है, आपके नाम लिखा हुआ अपना ख़त पढ़ रहा हूँ, ये मौजू शायद इसलिए रखा गया है कि आज भी हमारे मुल्क और दुनिया के तक़रीबन वही हालात हैं, जो आपके ज़माने में थे और कोई बड़ी तब्दीली नहीं आयी। वही महंगाई, बेरोज़गारी, बद अम्नी-जिसकी लाठी, उसकी भैंस। ग़रीबों और कमजोरों का माली, अख़्लाक़ी, जिन्सी और सियासी शोषण। वही तबक़ाती ऊँच- नीच, फ़िरक़ापरस्ती, खू़न-ख़राबा बौर ज़बानों के झगड़े। आपने कहा था कि आप अक़ीदे की बुनियाद पर होने वाले फ़िरक़ावाराना फ़सादात में मरना पसंद नहीं करते, मगर अब ख़ुदकुश हमलों की सूरत में ये फ़सादात रोज़मर्रा का मामूल हैं जिन में आए रोज़ बेशुमार मासूम और बेगुनाह लोगों की जाने जाती हैं. हां, साइंस और टेक्नोलॉजी में ख़ासी तरक्की हुई है और बहुत-सी हैरतअंगेज़ चीजें ईजाद हो गयी हैं, वे चीज़ें जिनकी आपने इब्तिदाई शक्लें देखी थीं और जिनका ज़िक्र आपने ‘स्वराज के लिए’ और कुछ दूसरे अफ़सानों में किया था (कण्डोम और प्रोजेक्टर वगै़रह) अब ख़ासी तरक्कीयाफ्ता सूरतों में आम तौर से मिलती हैं, कश्मीर का मस्अला भी वहीं का वहीं है, जहाँ आपके ज़माने में था और चचा साम (अमेरिका) से हमारे ताल्लुक़ात भी वैसे ही हैं। आपने एक ख़त में चचा साम के जापान पर एटमी हमले की ‘तारीफ़’ की थी और अपनी ज़रूरत की वज़ाहत करते हुए उनसे छोटे-से एक एटम बम की फ़रमाइश की थी. आपके किसी ख़ैरख्वाह ने ये ख़याल करके कि शायद चचा साम तक आपका उर्दू में लिखा हुआ ख़त न पहुँचा हो, उसका तर्जुमा करके आपकी बात उन तक पहुँचा भी दी थी और वह इंटरनेट पर इन लफ़्ज़ों में मौजूद हैः- आपने स्वयं बहुत से सराहनीय कार्य किये हैं और अब भी कर रहे हैं। आपने हिरोशिमा का विनाश कर दिया, आपने नागासाकी को धूल एवं धुएँ (राख के ढेर) में बदल कर रख दिया और आपने जापान में हजारों बच्चे पैदा करवाए। मैं आपसे मात्र इतना चाहता हूँ कि मेरे पास कुछ ड्राईक्लीनर्स भेज दे जो इस प्रकार है। यहाँ कुछ मुल्ला क़िस्म के लोग हैं जो पेशाब करने के पश्चात् एक पत्थर उठाते हैं और खुली शलवार के अन्दर एक हाथ से उस पत्थर को पेशाब की बची बूँदों को अवशोषित करने के लिए प्रयोग करते हैं, ऐसा वे चलते हुए एवं लोगों के सामने करते हैं। मैं चाहता हूँ कि जैसे ही कोई व्यक्ति ऐसा करता दिखाई दे, वैसे ही एक एटम बम, जो आप मुझे भेजेंगे, उसके ऊपर छोड़ दूँ जिससे कि वह मुल्ला और वह पत्थर (जो वह हाथ में पकड़े हुए है) दोनों खाक में मिल जाएँ। मगर चचा ने उसका कोई नोटिस न लिया था, बल्कि जब हम ने ख़ुद एटम बम बना लिया, तो उल्टा उसके पीछे पड़ गये कि आप अपने मुल्ला पर नहीं, हमारे भानजे (इस्राइल) पर मारेंगे, हालांकि हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं था। आज के इस सेमिनार का मौज़ू’ इसलिए भी मौज़ू और मुनासिब मालूम होता है कि आपने ख़ुद तो लिखा था:- आज का अदीब बुनियादी तौर पर आज से पाँच सौ साल पहले के अदीब से कोई ज़्यादा मुख़्तलिफ़ नहीं, हर चीज़ पर नये पुराने वक़्त का लेबल लगाता है, इंसान नहीं लगाता। आज के नये मसाइल भी गुज़रे हुई कल के पुराने मसाइल से बुनियादी तौर पर मुख़्तलिफ़ नहीं, जो आज की बुराइयाँ हैं, गुज़रे हुए कल ही ने इनके बीज बोये थे। आपने ये भी कहा था कि हम क़ानूनसाज़ नहीं, मुह्तसिब (हिसाब लेने वाला) भी नहीं, हिसाब लेना और क़ानूनसाज़ी दूसरों का काम है। हम हुकूमतों पर नुक्ताचीनी करते हैं, लेकिन ख़ुद हाकिम नहीं बनते, हम इमारतों के नक़्शे बनाते हैं, लेकिन मेमार (बिल्डर) नहीं। हम मरज़ बनाते हैं, लेकिन दवाख़ानों के इन्चार्ज नहीं। हमारी तहरीरें आपको कडु़वी और कसैली लगती हैं, मगर जो मिठासें आपको पेश की जाती रहीं, उनसे इंसानियत को क्या फ़ायदा हुआ है! नीम के पत्ते कड़वे सही, मगर ख़ून ज़रूर साफ़ करते हैं। चूँकि हम आपकी इन बातों से इत्तिफ़ाक़ करते हैं, इसलिए आपको अपना हमअस्र (समकालीन) मानते हैं। और हाँ, एटम बम के अलावा कुछ और चीजे़ं भी हमने आपके बाद बनायीं या वह ख़ुद ईजाद हो गयीं जैसे नज़रीयः ए-ज़रुरत नया पाकिस्तान (आधा) तालिबान, ख़ुदक़ुश हमले, आईन (संविधान) और नया दारूल-हुकूमत (राजधानी) वगै़रह। बाक़ी ईजादों के बारे में तफ़्सील फिर सही, मगर आईन और नये दारूल-हुकूमत के बारे में अर्ज़ है कि ये वही आईन है जिसको बना कर देने की आपने चचा साम सेे दख़्वास्त की थी। आप यक़ीन करें बड़े भाई, हमने ख़ुद बना लिया, ईमान से! और इसे ख़ूब लपेट-लपाट कर हिफ़ाज़त से रखते हैं और कभी-कभार ही निकालते हैं कि ज़्यादा इस्तेमाल से मैला न हो या फट न जाए। इसके बजाय हम सदारती आर्डिंनेंसों, वज़ारती धक्कों और कांस्टीट्यूशन एवेन्यू की रैलियों से काम चलाते हैं, जहाँ तक नये दारूल हुकूमत का ताल्लुक़ है, आप हैरान होंगे कि ये सेमिनार भी वहीं हो रहा है, ये भी हमने ख़ुद बनाया है। बहुत ख़ूबसूरत और साफ़-सुथरा शहर है और इसमें बहुत-सी ख़ूबियाँ हैं। लेकिन मैं सिर्फ़ ऐसी बातों का ज़िक्र करूँगा जैसी आपको पसंद हैं, आप अनोखी और चैंका देने वाली चीजें और बातें पसंद करते हैं ना! इस शहर की सबसे बड़ी ख़ूबी ये है कि इसका नाम इस्लामाबाद है, मगर इस्लामी मुसावात (समानता) की तालीम के बरअक्स यहाँ इन्सानों की तबका़ती तक़्सीम पर सख़्ती से अमल किया जाता है, यहाँ आदमियों की पहचान सेक्टरों, ग्रेडों और मकानों की केटेगरियों से होती है, लेकिन ये ज़रूरी नहीं कि जितना बड़ा ग्रेड, उतना बड़ा इंसान बल्कि अक्सर इसके उलट है। बहरहाल इस तक़सीम का एक फ़ायदा यह है कि ग्रेड, सेक्टर और केटेगरी से आदमी की हैसियत, बल्कि औक़ात का फ़ौरन अंदाज़ा हो जाता है। इस्लामबाद की सड़कें कुशादा और इमारतें आलीशान और ख़ूबसूरत हैं, मैंने अपने एक अफ़साने में इनका कुछ ज़िक्र किया है। एक किरदार को जुम्हूरीयत की रोड नहीं मिल रही थी, वह फ़ोन पर किसी से पूछता है: शाहजी, मैं बड़ी देर से भटक रहा हूँ, शार-ए-जुम्हूरीयत कहाँ वाक़े हैं? ‘आजकल मरम्मत के लिए बंद है। ‘मगर है कहाँ? ‘कांस्टीट्यूशन एवेन्यू के पास’ ‘और वह कहाँ है? ‘कांस्टीट्यूशन या एवेन्यू? ‘एवेन्यू यार!’ ‘पार्लियामेंट बिल्डिंग देखी है? ‘हाँ, उसी हांटेड हाउस के सामने तो हूँ जो अंडर... आॅफ़ प्रेज़ीडेंसी है’. ‘वहाँ से थोड़ा आगे चलो, तुम्हारे बाएं हाथ पर एक ख़ूबसूरत और पुरवक़ार इमारत होगी। ‘अच्छा, जहाँ कभी अज़ ख़ुद नोटिस लिये जाते थे? हाँ, वही तो कांस्टीट्यूशन एवेन्यू है, इस पर ज़रा आगे जाकर क्रासिंग आएगा,’ ‘आ गया और पहुँच गया, यहाँ दाएँ हाथ वाली जम्हूरीयत रोड है, ‘अच्छा मगर शाहजी! ये सड़क इतनी छोटी क्यों? ‘भाई, इस मुल्क में जम्हूरीयत की जितनी उम्र है, सड़क की लम्बाई उसके मुताबिक़ रखी गयी है. बड़े भाई साहब! पाकिस्तान सेक्रेट्रियेट की इमारतें भी क़रीब ही हैं। मैं जब भी इनको देखता हूँ, तो मुझे वज़ीराबाद का मिस्त्री कमालदीन उर्फ़ कमाला याद आ जाता है जो इनकी तामीर के दौरान में तीसरी मंज़िल पर पलस्तर करते हुए गिर गया था और उसकी दोनों टांगें टूट गयी थीं। जब कुछ अर्सा बाद वह अर्ज़ी हाथ में लेकर बैसाखियों पर चलता बमुश्किल यहाँ पहुँचा, तो उसे अंदर जाने की इजाज़त नहीं मिली थी, खैर, वह तो एक मामूली सा राजमिस्त्री था, इस शहर में ऐसी इमारतें भी हैं जिनका इफ़्तिताह (उद्घाटन) करने वाले वज़ीरों और वज़ीर आज़मों को भी अपने ओहदों से हट जाने और ऊपर वाले की नज़रों में गिर जाने के बाद अंदर दाखिल होने की इजाजत नहीं मिलती। इस शहर में अदब, आर्ट और कल्चर के बहुत से और बड़े बड़े इदारे हैं, मगर पता नहीं क्या मनहूसियत है कि यह शहर फिर भी बेरौनक़ और कल्चरल लिहाज़ से बंजर समझा जाता या मालूम होता है। मुल्क के दूसरे इलाक़ों से आने वाले और ख़ास तौर पर बच्चे यहाँ बहुत जल्द उकता जाते हैं और वालिदैन से वापस ‘पाकिस्तान’ चलने की ज़िद करने लगते हैं। इस शहर की सबसे अनोखी, मगर दिलचस्प चीज़ ज़ीरो प्वाइंट है। चूंकि यहाँ से हर वापस जाने वाला ख़ाली हाथ और ज़ीरो-ज़ीरो हो कर जाता है, इसलिए ये नाम बहुत मौज़ू मालूम होता है, शायद इसीलिए पाकिस्तान की मज़लूम तरीन और बरायेनाम ज़िन्दा खातून बेगम नुसरत भुट्टो ने कहा था: इस्लामाबाद के कूफ़े से मैं सिंध (मदीने) आयी। मुआफ़ कीजिये, बड़े भाई साहब, मैंने छूटते ही इस्लामबाद का तआर्रुफ़ शुरू कर दिया और अपने बारे में कुछ बताया ही नहीं कि मैं कौन हूँ और क्या हूँ? आप यक़ीनन मुझे नहीं जानते। आपने ख़त पर मेरा नाम तो देख ही लिया होगा, जिस बरस यानी 1955 में आपका इंतिक़ाल हुआ, मैं हाफ़िज़ाबाद के हाईस्कूल में मैट्रिक के इम्तिहान की तैयारी कर रहा था, मेरा पुख्ता इरादा था कि इम्तिहान से फ़ारिग़ होकर लाहौर ख़ाला के यहां जाऊँगा और आपसे मिलने या कम अज़ कम आपको देखने की कोई राह निकालूँगा, मगर अफ़सोस मेरे इम्तिहानात शुरू होने से पहले आपका इंतिक़ाल हो गया। जिसका मुझे बेहद सदमा हुआ, लेकिन मैं आपको हमेशा जिंद़ा रहने वाली तहरीरों की वजह से जिंदा ही समझता हूँ, इसीलिए ये ख़त लिख रहा हूँ। मैं उन दिनों स्कूल की लाइब्रेरी से किताबें ले कर पढ़ता था जहाँ अख़बार की कहानियों के अलावा मियाँ एम0 असलम, मौलाना रशीद अख़्तर नदवी, रईस अहमद जाफ़री और नसीम हिजाजी के नावेल मौजूद थे। कृश्नचंदर और हिजाब इम्तियाज़ अली के अफ़साने और मिर्ज़ा अदीब के सेहरानवर्द के ख़ुतूत भी मिल जाते थे। मैं ये किताबें पढ़ कर सोता, तो मुझे बड़े अच्छे-अच्छे और मीठे-मीठे ख़्वाब दिखायी देते, लेकिन फिर एक रिसाले में आपका एक अफ़साना पढ़ा, शायद उसका उन्वान ‘दस नंबरी था’. उसमें एक भिखारिन औरत की झोली मंे कोई सख़ावत का पुतला मर्द बच्चे का तुहफ़ा डाल देता है। इसके बाद वे लोग निढ़ाल होकर और सर्दी से ठिठुर कर मर जाते हैं। उन दोनों को साथ-साथ कब़्रे खोद कर दफ़ना दिया जाता है। बड़ी कब्र के साथ एक छोटी सी कब्र देखने वालों को दस का अंक मालूम होता हैं, वह कहानी पढ़कर मेरा दिल भर आया और मीठे सुहाने ख़्वाब देखने के बजाय वह रात मैंने जागकर आँखों में गुज़ारी, लेकिन पता नहीं उस कहानी में क्या जादू था कि मैं आपकी कहानियाँ तलाश करके पढ़ने और जागने लगा। मगर आपकी कोई किताब कहीं नज़र नहीं आती थी, बल्कि म्युनिसिपल लाइब्रेरी में भी आपकी कोई किताब मौजूद नहीं थी, मेरा ख़याल है अब भी नहीं होगी, क्योंकि टीचर्स और वालिदैन का ख़याल था कि आपकी किताबों से अख़्लाक़ पर बुरा असर पड़ता है। ये बात बहुत हद तक सही साबित हुई। उन सब लड़कों के चाल चलन ठीक रहे जो आपकी किताबें नहीं पढ़ते थे, वे नेक, शरीफ़ और लायक़ लड़के बड़े-बड़े ओहदों पर पहुँचे, उनमें से कुछ डिप्टी कमिश्नर और कर्नल, जरनैल बने। सिर्फ़ मेरे अख़्लाक़ पर असर पड़ा, क्योंकि अपने स्कूल की तारीख़ में सिर्फ़ मैं ही आपके नक़्शे-कद़म पर चला। मैं आपकी किताबें लाइब्रेरी से किराये पर ले कर चोरी छिपे पढ़ता था आपने मुझे सोचने महसूस करने और लिखने की अज़ीब लत लगा दी थी। आपकी कहानियाँ पढ़ने से पहले मेरी कहानियाँ बच्चों के रिसालों में शाए होती थीं, मुर्गों, बकरियों और शरीर बच्चों के बारे में। लेकिन दसवीं के इम्तिहान से फ़ारिग़ होते ही मैंने बालिग़ों के लिए कहानियाँ लिखना शुरू कर दीं। घर वालों का ख़याल था कि मेरे वक्त से पहले बालिग़ होने में आपकी कहानियों का हाथ था। चुनंाचे मेरा पहला अफ़साना उसी बरस (अक्टूबर 1955) शाए’ हुआ। जिससे मुझे ये खु़शफ़हमी भी हुई कि शायद क़ुदरत ने मुझे आपका मिशन जारी रखने के लिए मुन्तख़ब किया हो। भाईजान! आप यक़ीन करें, मेरा इरादा था कि आपकी तरह हक़ीक़तनिगारी का उस्लूब (ंशैली) इख़्तियार करूँगा, सचाई का साथ दूँगा और सच लिखूँगा, लेकिन फिर मैंने उर्दू ज़बान के बहुत बड़े हामी, उस्ताद, नक़्क़ाद, और दानिश्वर डाॅ. सय्यद अब्दुल्लाह की हक़ीक़तनिगारी, इस्मत चूग़ताई और आपके बारे मेें राय पढ़ी। उन्होंने लिखा थाः हक़ीक़तनिगारी यूँ भी अपने ज़ाहिरी लफ़्ज़ी मफ़हूम (अर्थ) के बरअक्स एक मर्हले पर पहुँच कर दरअस्ल भद्दी, ग़लीज़, नापाक और तल्ख़ सचाइयों और वाक़िओं जैसी हो जाती है, ख़ुद मुसव्विरी मंे इसका नतीजा महज़ चीज़ों और हालतों की तस्वीरकशी है। मंटो और इस्मत दोनों इस अंदाज़ की नुमाइंदगी करते हैं। हक़ीक़तनिगारी एक ख़ास हद तक बरहक़, मगर ज़िंदगी में सब कुछ कहने के बजाय बहुत कुछ छुपाना भी पड़ता है। इसलिए हक़ीक़तनिगारी कुल मिलाकर बेमुराद, अधूरी और नाकाम धारा है। मंटो और इस्मत दोनों के यहाँ तो यह एक इन्तिक़ामी-सी चीज़ मालूम होती है। इस वजह से इन्हें फ़न के दरबार में बड़ा मक़ाम तो मिलता है, मगर फ़न के लिए, ज़बान और क़लम की जिस नेकी की ज़रूरत है, अफ़सोस है कि वे इससे महरूम हैं। (डाॅ0 सय्यद अब्दुल्लाहःउर्दू अदब-1857 ता 1966) इतने बड़े उस्ताद, नक्काद और आलिम इस्मत चुग़ताई की हक़ीक़तनिगारी और आपके बारे में ये बातें सुनकर मेरे तो छक्के छूट गये, मुझे सरकारी नौकरी करना और जिंदगी में आगे बढ़ना था। मैंने आपकी राह छोड़ दी। मानता हूँ कि मैं आपका मिशन जारी न रख सका। मैं समझ-बूझ, दुराव और बुज़दिली का शिकार हो गया, यूँ भी अब लोगों ने अफ़सानों के बजाय तफ़रीह की नई-नई चीजें़ तलाश कर ली थीं और अफ़सानों में दिलचस्पी लेना छोड़ दी थीं। लेकिन मैं अपने निश्चय से बिल्कुल ही नहीं फिर गया, मुझे बचा बचा कर और प्रतीकों रूपकों में लपेट कर चाहे किसी की समझ में आये या न आए, बात कहने का हुनर आ गया था। हमारी मुश्किल यह थी कि आप के दौर में हाकिम लोग सीधे-सादे थे। अफ़साने पर जो इल्ज़ाम लगाया जाता था, उसी के तहत मुक़द्दमा चलता और तहरीर से वही मानी लिये जाते थे जो उसमें होते थे। यही वजह थी कि आप जुर्माना दे कर या छोटी मोटी सज़ा भुगत कर छूट जाते थे। मगर अब ऐसा नहीं हैं। हबीब जालिब ‘ऐसे दस्तूर को मैं नहीं मानता!’’ या उस्ताद दामन ‘पाकिस्तान विच मौजा ही मौजां, चारे पासे फ़ौजां ई फ़ौजां’’ लिखते हैं, तो उनके क़ब्जे़ से शराब या बम बरामद हो जाता है, मगर आपने बेधड़क अपनी किताब का नाम ‘नमरूद की ख़ुदाई रख लिया था, हालांकि आपने नमरूद की खुदाई, देखी तक न थी। लेकिन हम नहीं रख सकते। हमने देखी ही नहीं भुगती भी है। बड़े भाई! आपने एक जगह लिखा था: मुझे ऐसी जगहों से जिनको आश्रम, विद्यालय या जमाअतखाना, तकिया या दर्सगाह (मदरसा) कहा जाए, हमेशा से नफ़रत है, वह जगह जहँा फ़ितरत के खिलाफ उसूल बनाकर इन्सानों को एक लकीर पर चलाया जाये, मेरी नज़रों में कोई वक़्अत नहीं रखती। ऐसे आश्रमों, मदरसों, विद्यालयों और मूलियों के खेत में क्या फर्क़ है? लेकिन हम ऐसे इदारों को मूलियों के खेत नहीं कह सकते, हालांकि अब मूलियों और शलजमों के खेतों की भरमार है। खुद मेरे अपने घर में मूलियों की क्यारियाँ हैं और मुल्क के कुछ इलाक़ों में तो मूलियों के इस कदर ज़्यादा खेत हैं कि उन्हें मूलीस्तान कहना चाहिए लेकिन हम नहीं कह सकते, वर्ना वे हमारा मूली कुण्डा कर देंगे। बड़े भाई साहब! ये ठीक है कि हम आपकी दिखाई हुई सच्चाई और हक़ीक़तनिगारी की राह पर पूरी तरह न चल सके, मगर हमने आपसे बहुत कुछ सीखा। हमने आपसे सीखा कि नेक, शरीफ़, मोअज्ज़िज़ और बड़े लोगों की बात न करो, वे ख़ुद अपनी बात कर लेंगे, बल्कि मनवा लेंगे। तुम गिरे पड़े और छोटे लोगों की बात करो, उमरावजान ‘अदा’ अपनी बात किसी नवाबज़ादे या किसी मिर्ज़ा हादी रूस्वा के ज़रीए सब तक पहुुँचा लेगी, मगर ‘हत्तक’ की सौगंधी और ‘काली शलवार’ की सुल्ताना की बात अगर तुमने न सुनी तो कोई नहीं सुनेगा। आपने हमें सिखाया कि काम करने वाली कामी को कुम्मी-कमीन न कहो। इसी मेहनतकश के दम से सारी रौनक़ और चहल-पहल है। हक़ीर, फ़क़ीर और बुरे नज़र आने वाले लोगों से नफरत न करो, वे बीमार या मजबूर हैं, जोर आवरों के सताए हुए हैं। समाज के रौंदे, दुतकारे और कुचले हुए लोग हैं वे तबका़ती तक़सीम और नाइंसाफियों के शिकार हैं। दूसरों के बारे में तो कुछ कह नहीं सकता, लेकिन मैंने और असद मुहम्मद खां (कहानीकार और टी0वी0 स्क्रिप्ट राइटर) ने आप की ये बात जरूर पल्ले बाँध ली थी और अब तक इस पर क़ायम हैं। और बड़े भाई, आपको तो यह भी मालूम न होगा कि उन्होंने हीरोशिमा और नागासाकी के बाद अफ़गानिस्तान और इराक़ का क्या हाल किया और अब ईरान और पाकिस्तान के पीछे पड़े हैं। (और भारत व सऊदी अरब जैसे मुल्क अमेरिका के कदमों में पड़े हैं-हसन) लेकिन अल्लाह ख़ैर करेगा। अब हम इतने कमजोर भी नहीं (हाँ, मगर अमेरिका की दादागीरी और तालिबानियों के गै़र जुम्हूरी, बर्बर हमलों व क़ब्ज़ों के आगे हम बेबस हैं-हसन) बस, हमारी डेमोक्रेसी बहाल होने की देर है। बाक़ी बातें मैं अगले ख़त में लिखूँगा, क्योंकि ये ख़त तवील हो रहा है। दूसरा यह मुझे दो सरकारी इदारों के जे़रे इंतिज़ाम होने वाले प्रोग्राम में पढ़ना है। अगर वे नाराज़ हो गये तो आइन्दा मुझे अपने प्रोग्रामों में नही बुलायेंगे। आप इस बात पर ख़फ़ा न हों, सच्चाई और हक़ीक़तपसंदी अपनी जगह, मगर हमारी भी कुछ मजबूरियाँ हैं, अब इजाज़त। आपका छोटा भाई मंशा याद -मुहम्मद मंशा याद लोकसंघर्ष पत्रिका के सितम्बर अंक में प्रकाशित

Tuesday, September 8, 2009

लो क सं घ र्ष !: मैं आज़मगढ़ हूँ

मैं आजमगढ़ हूँ बिलकुल अपने दूसरे भाइयों की तरह चाहे वे उत्तर प्रदेश से सम्बंधित हों या देश के किसी अन्य राज्य से। परन्तु सैकड़ों साल से मेरा अपना इतिहास है और अपनी अलग पहचान भी। विपरीत परिस्थितियों से निपटने की मुझमें अद्भुत क्षमता है। मेरी सन्तानों में गतिशीलता, स्वयं सहायता और जोखिम उठाने का अदम्य साहस है। इसीलिये कहा जाता है कि ‘‘जहाँ-जहाँ आदमी है, वहाँ-वहाँ आज़मी है। भारत का कोई राज्य या महानगर नहीं जो मेरे सपूतों से खाली हो। दुनिया का कोई देश नहीं जहाँ मेरी संताने न पहुँची हो। फिजी में तो मेरी भाषा बोली जाती है। मोरिशस में कासिम उत्तीम और त्रिनिडाड एण्ड टोबैगो में वासुदेव राष्ट्र प्रमुख तक बन चुके हैं। केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने मुझे कल कारखानों एवं रोजगार के अन्य स्रोतों से वंचित भले ही रखा हो पर मेरी सन्तानें देश प्रदेश के अन्य भागों से ही नहीं बल्कि विदेशों में भी जाकर अपनी योग्यता, साहस और परिश्रम के बल पर अपने हिस्से की रोटी निकाल ही लाती हैं। मेरे अन्य भाइयों की सन्तानों की तरह मेरे लाल रोटी, कपड़ा, मकान, बिजली, पानी और रोजगार आदि के लिये आन्दोलन नहीं करते, हिंसा पर नही उतरते। इसी प्रकार उनके शौक भी कुछ भिन्न हैं। पैसा कमाने के बाद सबसे पहले पक्के घर बनवाते हैं, फिर गाड़ी, मोबाइल और टी0वी0 का नम्बर आता है। भविष्य के लिये बचा कर रखने या पूँजी निवेश के बारे में बहुत कम सोचते हैं। यही कारण है कि अक्सर रोजगार छूट जाने की स्थिति में बहुत कष्ट भरा जीवन व्यतीत करने पर मजबूर हो जाते हैं। परन्तु अपनी परेशानी में भी खुशहाल दिखायी देने की कला भी उन्हें खूब आती है। मात्र रोजी के लिये ही मेरे लाल बाहर नही जाते बल्कि उच्च एवं तकनीकी शिक्षा के लिये भी देश के विभिन्न महानगरों एवं विदेशों में जाते हैं पर अपनी धरती और अपने प्यारों से हमेशा जुड़े रहते हैं। संघर्ष मेरी घुट्टी में है। आत्म सम्मान की रक्षा के लिये सब कुछ दाँव पर लगा देना, शोषण और अत्याचार के खिलाफ उठ खड़े होना मेरी मिट्टी में हैं। मेरी सन्तानों ने अंग्रेजों को भी कभी चैन से नहीं रहने दिया। शेख रजब अली को ही ले लो, जेल का दरवाजा तोड़कर ठाकुर कुंवर सिंह समेत दो सौ क्रांतिकारियों को अंग्रेजों से छुड़ा लाया था। जब पूर्वी यू0पी0 में अंग्रेज जवाहर लाल नेहरू को गिरफ्तार करना चाहते थे तो मेरे ही एक सपूत असद अली खां ने उन्हें बचाया था। मलेशिया, सिंगापुर, बर्मा और इण्डोनेशिया जैसे देशों में पैसा कमाने के लिये गये मेरे सैकड़ों सपूत आजाद हिन्द फौज की स्थापना के समय ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बन गये और अपने बाल बच्चों का पेट काटकर उसकी आर्थिक सहायता की। साहित्य का संसार हो या फिल्मों की दुनिया, धर्म का क्षेत्र हो या क्रांतिकारी मैदान मेरी उपस्थिति कहाँ नही है। राहुल सांकृत्यायन, शिबली नोमानी, अयोध्या सिंह उपाध्याय, कैफी आज़मी हो या फिर मेरी बेटी शबाना आज़मी, क्या इनके उल्लेख के बिना इतिहास सम्पूर्ण हो सकता है। विभिन्न समुदायों का सौहार्दपूर्ण सह अस्तित्व मेरी विशेषता रही है। इस व्यवस्था के ताने बाने बिखेरने का कुछ बाहरी तत्वों ने कई बार प्रयास किया परन्तु सफल नहीं हो पायेे। कुछ एक अवसरों पर समाचार माध्यमों ने भी अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिये इन तत्वों की दूषित मानसिकता का जमकर बखान किया और मेरी ही संतानों के बीच भय और संदेह का वातावरण बनाने में उनके सहायक हो गये। बटाला हाउस मुठभेड़ (हत्याकाण्ड) के पश्चात तो चैनलों और समाचार पत्रों ने आग ही उगल डाला। अपनी लनतरानी में इतने आगे निकल गये कि मुझे ही ‘आतंकगढ़’ और ‘आतंक की नर्सरी’ कह डाला। मेरे लाल तो दिल्ली और लखनऊ उच्च एवं तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने के लिये गये थे पर इन लोगों ने मात्र पुलिस की कहानी पर भरोसा करके उन पर आतंकवादी होने की मुहर लगा दी। स्वतंत्र एवं निष्पक्ष पत्रकारिता के सभी सिद्धांतों को ताक पर रखकर चटपटी और गरम खबरें परोसने लगे जैसे देश और समाज के प्रति इनकी कोई जिम्मेदारी ही नहीं है। शायद देश में बढ़ती आतंकवादी घटनाओं के कारण जनता में उपजे रोष को अपनी व्यवसायिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए मीडिया में बैठे कुछ पूँजीवादी इस दुलर्भ अवसर को गँवाना नही चाहते थें। बाजारवाद की कोख से जन्मे समाचार माध्यमों के एक समूह ने महंगे विज्ञापन प्राप्त करने हेतु सनसनी पैदा करने वाले भावनात्मक प्रस्तुतीकरण का जिस प्रकार सहारा लिया वह समाज को तोड़ने वाला और निंदनीय था। मेरी संतानों पर भी इसका असर पड़ा और थोड़े समय के लिये उनमें भी भय और भ्रम की स्थिति पैदा हो गयी। परन्तु मैं पहले ही कह चुका हूँ विपरीत परिस्थितियों से निपटने की मुझमें अद्भुत क्षमता है। मेरे सपूतों ने यह सिद्ध भी कर दिया। मेरे प्रति दुष्प्रचार करने वाले अब अपना सुर बदलने पर विवश हैं। दिल्ली पत्रकार संघ ने बटाला हाउस प्रकरण पर अपनी रिपोर्ट में पत्रकारिता के मूल्यों एवं सिद्धांतों के निम्न स्तरीय होने पर जिस प्रकार चिंता जतायी है उससे मेरी आपत्तियों की पुष्टि भी हो जाती है। मुझे इस बात में कोई संदेह नही कि आने वाले समय में देश के अन्दर और बाहर देशभक्ति और सभ्यता का मुखौटा लगाये असली आतंकवादी बेनकाब होंगे और मेरे लाडले सम्मानपूर्वक घर लौटेंगे। इसकी शुरूआत हो भी चुकी है। मसीहुद्दीन संजरी मो0 9455571488

Monday, September 7, 2009

लो क सं घ र्ष !: भारत के विभाजन की सच्चाई से हम कब तक मुँह चुराएँगे?

देश की आजादी के 62 साल बाद भी एक कडुवा सच बराबर उभर कर ना जाने क्यों देश के सामने आ ही जाता है कि देश के विभाजन का जिम्मेदार क्या केवल मुहम्मद अली जिनाह ही थे, जिन्होंने मुसलमानों को बरग़ला कर देश से अलग एक राष्ट्र बनाने के लिए अहम भूमिका अदा की? दो कौमी नजरिए के बानी कहे जाने वाले अपने-जमाने के दिग्गज कांग्रेसी मुहम्मद अली जिनाह ने किन हालात में पाकिस्तान बनाने की सोंची? और वह कौम जो उनकी वेशभूषा व भाषा से उन्हें कभी भी मुस्लिम लीडर के तौर पर कुबूल नहीं करती थी, आखिर क्या जादू उन्होंने किया कि पूरी कौम उनकी एक आवाज पर अपना घर बार, पूर्वजों की चैखट छोड़कर पलायन करने पर उतारू हो गई? नब्बे के दशक के प्रारम्भ में जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तो एक शोर सा देश में मचा कि मौलाना आजाद द्वारा लिखित सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘‘इण्डिया विन्स फ्रीडम’’ के वह पृष्ठ जो उन्होंने अपनी मृत्यु के 50 वर्ष बाद खोलने को कहे थे और जो राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित है खोलकर पढ़े जाएं। पहले कांग्रेसी सरकार इसे टालती रही परन्तु जब सदन तक में यह मामला भाजपा व उसके सहयोगी दलों ने जोर-शोर से उठाया तो उन पृष्ठों को खोला गया। पृष्ठ खुलने पर उन शक्तियों को बहुत निराशा हुई जो यह आशा मौलाना आजाद जैसे निर्भीक वक्ता व लेखक से लगाए बैठे थे कि उन्होंने अवश्य देश के विभाजन के अस्ल जिम्मेदारों के बारे में कुछ लिखा होगा। पृष्ठों में मौलाना ने विभाजन के जिम्मेदारों में जिनाह की राजनीतिक अभिलाषाओं पर यदि एक ओर कटाक्ष किया था तो वहीं दूसरी ओर लौह पुरूष सरदार बल्लभ भाई पटेल को भी नहीं बख्शा था। आजकल फिर यह मुद्दा गर्मा गया है। कारण भाजपा के वरिष्ठ लीडर जसवंत सिंह की पुस्तक ‘‘जिन्ना भारत विभाजन के आइने में’’ के अंदर मुहम्मद अली जिनाह की धर्मनिरपेक्ष छवि का महिमा मण्डन किया जाना और उन्हें उपमहाद्वीप की एक बड़ी राजनीतिक शख्सियत करार देना है। जसवंत सिंह की पुस्तक पर भाजपा से लेकर संघ व कांग्रेसी पंक्तियों से तीखी प्रतिक्रियाएँ आनी शुरू हो गयी हैं। इसी प्रकार भाजपा के एक और वयोवृद्ध लीडर लालकृष्ण आडवाणी जब अपने जन्म स्थान सिंध प्रान्त (पाकिस्तान) गये थे तो वहाँ क़ायदे आजम मुहम्मद अली जिनाह की मजार पर श्रृद्धांजलि देते समय उन्होंने जिनाह के उस भाषण की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी जो आजाद पाकिस्तान की असेम्बली में उन्होंने पाकिस्तान को धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान बनाने की वकालत के लिए दिया था। आडवाणी की जिनाह के प्रति यह प्रशंसा भी उन्हें भारी पड़ी और काफी दिनों तक उन्हें इस बाबत अपनी पार्टी से लेकर पार्टी की पैतृक संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को सफाई देनी पड़ी। बात चाहे आडवाणी द्वारा कही गई हो या जसवंत सिंह द्वारा, दोनों ने ही सच बात जिनाह के बारे में कही है क्योंकि जिनाह कभी भी अपने व्यक्तित्व के आधार पर मुस्लिम कट्टर पंथी लीडर नहीं कहे जा सकते। उनके अंदर एक जिद्दी व महात्वाकांक्षी राजनेता के गुण अवश्य थे। देश के विभाजन के अहम पहलुओं पर देश के सुप्रसिद्ध इतिहासकार, गांधी वादी विचारक, समाजसेवी एवं पूर्व राज्यपाल उड़ीसा स्व0 विश्वम्भरनाथ पाण्डेय ने अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व कोलकाता से प्रकाशित उर्दू दैनिक आजाद-हिन्द को दिये गये साक्षात्कार में भली भांति खुलकर प्रकाश डाला है। प्रस्तुत है उस साक्षात्कार का हिन्दी रूपान्तरणः- प्रश्न-पाण्डेय जी, आज स्वतंत्रता और विभाजन को आधी शताब्दी बीत चुकी है। आज हमारे सम्मुख जो भारत है क्या स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में इसी भारत की परिकल्पना स्वतंत्रता सेनानियों ने की थी? या स्वतंत्र भारत का कोई अन्य स्वरुप आपके मस्तिष्क में था? पाण्डेय जी-देखिये! स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में जनता को स्वतंत्र भारत के अनेक रूप उस समय के नेताओं ने दिखलाये थे। पं0 जवाहर लाल नेहरू ने जो रूप भारत की स्वतंत्रता का पेश किया था वह आशा वादी स्वरूप था, जिसमें आशाओं से भरे भारत की परिकल्पना का छाया चित्र था। महात्मा गांधी ने जो रूप स्वतंत्र भारत का जनता के सम्मुख रखा था वह इसके बिल्कुल विपरीत था। उन्होंने जनता को बताया था कि अभी जो स्वतंत्रता हमें मिली है वह मात्र राजनैतिक स्वतंत्रता है। जब तक हमें सामाजिक व आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो जाती, यह स्वतंत्रता लंगड़ी स्वतंत्रता कहलायेगी। दूसरी मुख्य बात जो गाँधी जी ने कही थी वह यह थी कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए हमने जो लड़ाई लड़ी थी उसमें हम अपने शत्रु को पहचानते थे, परन्तु सामाजिक व आर्थिक स्वतंत्रता के लिए हमारा संघर्ष अपने देश वासियों के विरूद्ध होगा, और ऐसे छुपे हुए शत्रुओं से संघर्ष करना स्वतंत्रता संग्राम से अधिक कठिन होगा। गांधी जी सामाजिक व आर्थिक स्वतंत्रता के प्रति बहुत अधिक आशा वादी नहीं थे। पं0 नेहरू का स्वतंत्र भारत का स्वरूप, गांधी जी के विचारों से भिन्न था, जो कि नई उमंगों व आशाओं से भरा हुआ था। पं0 नेहरू का मानना था कि स्वतंत्र भारत का भविष्य बहुत उज्ज्वल होगा और जनता को बहुत कुछ प्राप्त होगा, परन्तु गांधी जी इस बात से सहमत नही थे उनकी दूरदर्शिता भविष्य के संकटों का पूर्वाभास कर रही थी। इसलिए गांधी जी कहा करते थे कि हमें जनता को ऐसे आशावादी स्वतंत्र भारत का सपना नहीं दिखाना चाहिए जो बाद में उसे हम न दे पायें। प्रश्न-ऐसा कहा जाता है कि मो0 अली जिनाह ने मुस्लिम हितों को ध्यान में रखकर मुसलमानों के लिए अधिक से अधिक अधिकार व राजनैतिक लाभ अर्जित करने के लिए ‘‘मुस्लिम कार्ड’’ खेला था, परन्तु बाद में ऐसे हालात बन गये कि जिनाह को पाकिस्तान की स्थापना के बारे में गम्भीरता से विचार करना पड़ा ऐसे हालात पैदा करने का दोष कांग्रेस के उस समय के ब्राह्मण वादी राजनैतिक नेताओं पर लगाया जाता है। यह कहाँ तक उचित है? पाण्डेय जी-जिनाह का यह विचार था कि हम यह आवाज उठा रहे हैं, यह नक्कारखाने में तूती की आवाज के समान होगी, परन्तु जिनाह को पाकिस्तान की स्थापना में जिन शक्तियों से सहायता मिली वह न तो मुस्लिम लीगी थे और न ही पाकिस्तान नवाज। उस समय देश के सभी समाचार पत्रों ने पूरे-पूरे पृष्ठ एक सम्प्रदाय विशेष के विरोध में रंग दिये थे। विरोधी धारणा इतनी बढ़ गयी थी कि जनता को यह बात सच लगने लगी और वह यह सोचने पर मजबूर हो गई कि दो कौमी विचारधारा में दम है। खुद जिनाह को अपनी बात पर विश्वास नहीं था कि उनकी यह छोटी सी सोच एक विशालकाय आन्दोलन का रूप ले लेगी। परन्तु अचानक पता नहीं क्या हुआ कि पूरी कौम एकदम जाग उठी और पाकिस्तान की स्थापना की सोंच ने जन्म ले लिया। यद्यपि उस समय तक पाकिस्तान का कोई प्रत्यक्ष स्वरूप जनता के सामने नहीं था। जिनाह से कई अवसरों पर यह प्रश्न पूछा गया कि पाकिस्तान के बारे में कुछ तो बतायें। पं0 नेहरू तो अपने स्वतंत्र भारत का स्वरूप पेश कर चुके हैं, आपका पाकिस्तान कैसा होगा? स्वतंत्र पाकिस्तान में अफगानों का भविष्य कैसा होगा? किसानों की स्थिति क्या होगी? इन सभी प्रश्नों का सही उत्तर जिनाह पेश करने में सदैव असमर्थ रहे। वह केवल इतना कहते थे कि इन सभी प्रश्नों का उत्तर पाकिस्तान की स्थापना के उपरान्त तलाश लिया जायेगा। उन्होंने वास्तव में अपनी जनता से कोई वायदा नहीं किया था कि पाकिस्तान का स्वरूप कैसा होगा। प्रश्न-क्या सर माउन्टवेटेन ने पं0 नेहरू व सरदार पटेल को विभाजन के लिए तैयार कर लिया था? पाण्डेय जी-जी हाँ यह बात सही है कि पं0 नेहरू और सरदार पटेल को माउन्टवेटेन ने विभाजन के लिए महात्मा गांधी से पहले ही राजी कर लिया था। गांधी जी से तो बाद में बात हुई थी। गांधी जी के राजी होने का कारण यह था कि वह अब और अधिक संघर्ष नहीं करना चाहते थे और वह भी अपने लोगों से। प्रश्न-जो नेता, उदाहरणार्थ मौलाना अबुल कलाम आजाद व बादशाह खान स्वतंत्रता के समय देश के विभाजन का विरोध कर रहे थे, उनकों गांधी जी के इस वक्तव्य से बहुत ढांढस बँधा था कि देश का विभाजन ‘‘केवल मेरी लाश पर होगा’’ परन्तु बाद में गांधी जी को विभाजन के पक्ष में हथियार डालना क्या इन नेताओं के साथ धोखा नहीं था? पाण्डेय जी- बादशाह खान के साथ तो धोखा हुआ था और उनको सदैव इस बात की शिकायत भी रही। वह यह कहते नहीं थकते थे कि आपने तो हमको भेड़ियों के आगे छोड़ दिया हमें आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। पठानों ने देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में जिस प्रकार अपनी कुर्बानियाँ पेश कीं उसका बदला आपने इस प्रकार दिया? बादशाह खान को यदि यह शिकायत हमसे थी तो यह कोई गलत भी नहीं थी। जहाँ तक मौलाना आजाद का प्रश्न है तो उनको भी देश का विभाजन पसन्द नहीं था, परन्तु मौलाना भी इस मामले में एक हद तक ही सीमित रहे, और उनका विभाजन के प्रति विरोध कोई आन्दोलन का रूप न ले सका और ना ही वह स्वयं को किसी संघर्ष का भागीदार ही बना सके। प्रश्न-क्या कांग्रेस में कोई ऐसी टोली थी जो मुसलमानों को पार्टी में शामिल नहीं देखना चाहती थी? क्या उनमें लाला लाजपतराय, सरदार बल्लभ भाई पटेल और किशन लाल गोखले थे? पाण्डेयजी-देखियें! ईमानदारी की बात यह है कि जिनाह गोखले को बहुत सम्मान देते थे। हाँ लाला लाजपत राय के सम्बन्ध में यह कह सकते हैं कि उनके विचार हिन्दुत्व के पक्षधर थे। बल्लभ भाई के कोई स्पष्ट विचार इस बाबत कभी सामने नहीं आये। गांधी जी ने अन्तिम दिनों में विभाजन रोकने का अथक प्रयास किया। जब नेतृत्व का मुद्दा तेज होता गया कि स्वतंत्र भारत का नेता कौन होगा-पटेल या नेहरू? उस समय स्थिति यह थी कि नेहरू की संगठन पर उतनी पकड़ नहीं थी जितनी पटेल की, जो संगठन से भली भांति जुड़े हुए थे। यदि ईमानदारी से देखा जाये तो बल्लभ भाई का पलड़ा नेहरू से बहुत भारी पड़ रहा था। नेहरू उनके सामने कहीं टिक नहीं पाते, परन्तु गांधी जी यह बात समझते थे कि पटेल की राजनीति एक कट्टर पंथी व रूढ़िवादी धार्मिक विचारधारा पर केन्द्रित है जो राष्ट्र के लिए आगे चलकर घातक सिद्ध हो सकती है। गंाधी जी को नेतृत्व की इस लड़ाई की कितनी चिंता थी इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अपनी मृत्यु से मात्र दो घण्टे पूर्व गांधी जी ने सरदार पटेल को बुलाकर उन्हें अच्छी प्रकार समझाबुझाकर उनसे यह वायदा ले लिया था कि वह नेतृत्व पर से अपना अधिकार त्याग कर नेहरू का समर्थन करेंगें। मैं समझता हूँ कि गांधी जी ने देश के लिए चलते-चलते यह एक बहुत बड़ा कार्य किया था। वरना देश की राजनैतिक स्थिति किस प्रकार का रूप लेती इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। गांधी जी ने जिनाह हाउस में बल्लभ भाई पटेल, नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद व मौलाना आजाद के सम्मुख यह प्रस्ताव रखा था कि वह लोग सरकार में भागीदार न कर, जूनियर व दूसरी श्रेणी के नेताओं को आगे करें और स्वयं उन्हें बाहर से निर्देशित करें जैसा 1937ई0 में कई राज्यों की प्रदेश सरकारों के गठन के दौरान किया गया था। इसका अभिप्राय यह था कि शासक सत्ता संभालने के बाद चूंकि जनता से दूर हो जाता है। इस प्रकार संगठन में अनुभवी लोगों की उपस्थिति से जनता व सरकार के बीच सामन्जस्य बना रहेगा। परन्तु अफसोस! किसी ने गांधी जी की बात नहीं मानी। तर्क यह दिया गया कि सत्ता संभालने और जनता की समस्याओं के निवारण की सामथ्र्य दूसरी श्रेणी के नेताओं के पास नहीं है। जनता अभी से कठिनाइयों में पड़ जायेगी। यदि यूँ कहा जाये तो ठीक रहेगा कि स्वतंत्रता संग्राम की लम्बी लड़ाई लड़ने के पश्चात अधिकतर नेता थक चुके थे। वह अब और लड़ाई नहीं लड़ना चाहते थे। सबकी यही धारणा थी कि जो मिलता है वह ले लो। शायद इसी थकन ने उन्हें विभाजन का कडु़वा घूंट भी हलक के नीचे उतारने पर बाध्य कर दिया। प्रश्न-गांधी जी ने एक समय विभाजन रोकने के उद्देश्य से जिनाह को प्रधानमंत्री पद का निमंत्रण दे डाला था परन्तु कांग्रेसियों ने इस प्रस्ताव का जबरदस्त विरोध किया। गांधी अकेले पड़ गये। यहाँ पर यदि यह कहा जाय तो बेजा न होगा कि गांधी का प्रयोग सत्ता के लोभी कांग्रेसियों ने एक समय तक ही किया अन्तिम निर्णयों में उनको अलग थलक कर दिया गया? पाण्डेय जी-वास्तव में कांग्रेस कोई ऐसी राजनैतिक पार्टी तो थी नहीं जहाँ क्रमबद्ध नेतृत्व हो, वह एक ऐसी तहरीक थी जो लोगों को एक प्लेट फार्म पर तो ले आयी थी परन्तु विचाराधारा में विभिन्नता उपस्थित थी। गांधी जी हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षधर थे तो कांग्रेस में एक वर्ग ऐसा भी साथ चल रहा था जो 1925 में बनी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा के आधीन था और वह गांधी जी के विचारों का निरन्तर विरोध करता रहता था और अन्त में इसी वर्ग विशेष के प्रभाव में विभाजन का प्रस्ताव कांग्रेस को पारित करना पड़ा। प्रश्न-कांग्रेस में स्वयं सेवक का प्रवक्ता कौन था? सरदार पटेल या कोई अन्य नेता? पाण्डेय जी-सरदार बल्लभ भाई पटेल बड़ी हद तक संघ की आवाज थे, उनके सोंचने की शैली संघ की विचारधारा से प्रभावित थी। कांग्रेस में पटेल के कद के बराबर अन्य नेता बौने थे। इस सांेच के कुछ नेता इस संसार से जल्दी प्रस्थान कर गये। लाला लाजपतराय 1930ई0 में चल बसे, परन्तु सरदार पटेल अन्तिम दौर तक रहे और स्वतंत्र भारत में 1950 में परलोक सिधारे। यहाँ एक बात और स्पष्ट करता चलूँ कि यदि सरदार पटेल को यह पता होता कि जिनाह एक ऐसी बीमारी से ग्रसित हैं जो उन्हें एक वर्ष से अधिक नहीं जीवित रहने देगी, तो शायद कोई और ही स्वरूप भारत वर्ष का हमारे सम्मुख होता। प्रश्न-पाण्डेयजी! जिनाह का दो कौमी दृष्टिकोण किस हद तक सफल रहा? पाण्डेय जी- दो राष्ट्र का दृष्टिकोण कभी भी सफल नहीं हो सका। इसका प्रचार देश के विभाजन के समय बड़ी हद तक हुआ परन्तु ध्यान देने की बात यह है कि दो कौमी नजरिया पाकिस्तानी सरकार ने भी उस समय स्वतंत्रता के हासिल करने के पश्चात नकार दिया (इसका स्पष्ट प्रमाण कायदे आजम जिनाह की पाकिस्तान की स्वतंत्रता के बाद का वह भाषण है जिसमें उन्होंने पाकिस्तान गणराज्य की बात कही जो धर्मनिरपेक्ष होगा) वास्तव में दो कौमी दृष्टिकोण के पक्षधर यदि एक ओर पाकिस्तान की जमातें इस्लामी व मुस्लिम लीग थी तो दूसरी ओर भारत में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी इस बावत सक्रिय था। गांधी जी का दोनों कौमों का दिल जोड़ने का प्रयास विफल रहा। गांधी जी ने विभाजन के पश्चात ही दोनों कौमों को जोड़ने का असफल प्रयास किया। गांधी जी दोहरी राष्ट्रीयता के पक्षधर हो गये थे। वह चाहते थे कि पाकिस्तान बनने के बाद भी लोग वहाँ जाकर बसें। वह अपने कुछ साथियों के साथ पाकिस्तान जाकरबसना चाहते थे जिसमंे पं0 सुन्दर लाल भी थे परन्तु वह अवसर उन्हंे नसीब न हुआ। प्रश्न-मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान से जो आशाएं बांध रखी थी क्या वह पूरी हो सकीं? पाण्डेय जी-यदि आप किसी का दिल तोड़कर कोई काम करें तो कभी सफल नहीं होंगे। पाकिस्तान की उत्पत्ति हजारों लाखों के दिलों को तोड़कर हुई थी जहाँ तक मैं समझता हूँ कि न तो पाकिस्तान ही बन पाया और न ही वहाँ की जनता पाकिस्तानी । आज भी पंजाबी, सिंधी, बल्लोचियों व अफगानियों में पाकिस्तानी बटे हुए हैं। आज उस राष्ट्र में हर किसी की पहचान अलग-अलग है। जो मुस्लिम लीग की आशाओं पर पानी फेरने का सबूत है। प्रश्न-स्वतंत्र भारत में हिन्दुओं व मुसलमानों को एक दूसरे के समीप लाने में मीडिया और समाचार पत्र अपना जो चरित्र निभा सकते थे क्या उसमें हमें सफलता मिली? पाण्डेयजी-मीडिया का चरित्र बहुत अच्छा नहीं रहा और समाचार पत्र राष्ट्रीय एकता के विकास में अपना वह योगदान न दे सके, जैसा उन्हें देना चाहिए था। मीडिया पर सामंती शक्तियों का आधिपत्य है। चन्द छोटे-छोटे समाचार पत्र हैं जो धर्म निरपेक्षता व कौमी एकता के लिए कार्य कर रहे हैं, उनकी बात सुनने वालों की संख्या अधिक नहीं है। प्रश्न-देश के विभाजन के बाद बाबरी मस्जिद कांड हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए क्या सबसे बड़ा धक्का सिद्ध हुआ है? पाण्डेयजी- मैं ऐसा नहीं मानता। संघीय संस्थाओं ने यदि बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया तो इसमें सामान्य हिन्दू सम्मिलित नहीं था। इसको साम्प्रदायिक या धार्मिक प्रश्न नहीं बनाया जाना चाहिए। केवल साम्प्रदायिक शक्तियाँ ऐसा चाहती है कि मस्जिद-मन्दिर प्रकरण साम्प्रदायिक व धार्मिक मुद्दे के रूप में सदैव जीवित रहें। आज देश पर सबसे बड़ा संकट साम्प्रदायिकता है। साम्प्रदायिकता के साथ छुआ छूत की राजनीति ने भी देश को आज एक संकीर्ण अवस्था में ला खड़ा किया है। अब कोई भी निर्णय जाति पांति के आधार के अतिरिक्त हो ही नहीं पाता है, जो कि एक खतरनाक संकेत हैं। इसको पूर्णतया समाप्त करना अति आवश्यक है। -तारिक खान मोबाइल: 9455804309

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